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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग:द्वादशम् (Decorative Frames) मुख्य मूर्ति के आसपास सुशोभन-युक्त अलंकरण को परिकर कहते हैं। परिकर में मुख्य मूर्ति की पर्याययुक्त शिल्प-कृतियां उत्कोर्ण होती है। उसके उपरान्त अन्य अलंकृत शिल्पकृतियां उत्कीर्ण की जाती है। उदाहरण-चामरधारी स्री-पुरुष, द्वारपाल, अप्सरा, आदि। विष्णु की मूर्ति के आसपास दशावतारयुक्त परिकर होता है। सूर्य की मूर्ति के चारों ओर नवग्रह-युक्त परिकर है। देवी की मूर्ति के पार्श्व में सप्तमातृका या नवदुर्गा के स्वरूप-युक्त परिकर होता ही है । जैन मूर्ति के परिपार्श्व में अष्टप्रतिहारी-युक्त परिकर होता है। प्राचीन काल की पूजनीय मुर्तियों का तो परिकर होता ही है। प्रतिमा के मुख के इर्द-गिर्द के वर्तलाकार तेजोमंडल को प्राभा-मंडल या प्रभामंडल कहा जाता है। गुप्त काल की जैन प्रतिमा के परिकर में, परिकर की गादी (बैठक) सियुक्त होती है, मध्य में खड़ा धर्मचक्र और मृगयुग्म होता है, तथा ऊपर की ओर, इन्द्र, और प्रतिमा के मस्तक के दोनों ओर उड़ते गांधर्व-विद्याधर के स्वरूप होते है। गुप्तकाल और बारहवीं शताब्दी में जैन परिकर, शिल्प-ग्रंथों के वर्णन के अनुसार शास्त्रोक्त पद्धति से विशेषतः होने लगे। मत्स्य पुराण में परिकर का स्वरूप यों वर्णित है : तोरण चोपरिष्टात्रु विद्याधर समन्वितम् ॥१३॥ देव दुंदुभि संयुक्तं गंधर्वमिथुनान्वितम् पनवल्ली समोपेतं सिंहव्याघ्र समन्वितम् तथा कल्पलतोपेतंस्तुवाङि गरपरेश्वरः॥ एवं विधो भवेद् त्रिभागेणास्य पीठिका ॥ पूज्य प्रतिमा के परिकर के तोरण में विद्याधरों के रूप (मूर्ति) करने चाहिये। ऊपर की ओर देव-दुंदुभि के साथ गांधर्वयुग्म (जोड़ी) करनी चाहिये। दोनों ओर पत्रवल्ली के साथ सिंह-व्याघ्र और काल के रूप भी करने चाहिये। पूज्य मूर्ति के दोनों ओर परिकर में कल्पलता करनी चाहिये, और परिकर के अर्धभाग से पीठिका-सिंहासन करना चाहिये। इस प्रकार परिकर बहुत प्राचीन काल से किये जाते रहे हैं। जैन परिकरों की रचना भी गुप्तकाल में ऐसी ही थी। उसके बहुत से दृष्टान्त मिलते हैं। अभी प्रचलित और प्रवर्तमान परिकर की रचना तो ग्यारहवीं शताब्दी के बाद हुई होगी। परिकर के कारण मूर्ति का सौंदर्य बढ़ता है। मूर्ति एकाकी या सूनी नहीं लगती। सामान्यतः मुख्य मूर्ति का ही अलंकृत परिकर, शास्त्रोक्त पद्धति से किया जाता है । लेकिन कई शिल्पी अन्य मूर्तियों का भी परिकर करते हैं, जिससे मूर्ति का सौंदर्य बढ़े । सामान्यतः ऐसे परिकर में बाजू में दो स्तंभ, और ऊपर उनको जोड़ता सुंदर कलात्मक तोरण होता है। उपरान्त फूल, पत्ती, व्याघ्र, ग्रास आदि परिकर में किये जाते हैं। ऊपर गांधर्व, किन्नर और अप्सराएं उड़ती हुई दिखाई जाती है। स्तंभ के पास नीचे चामरधारी दो सेवक बनाये जाते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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