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जन प्रकरण
१७५
१. उत्तरकाय में सुधर्मा, ईशान, सनत्कुमार, बसो आदि देव हैं। २. अनुत्तरकाय में पांच स्थानों का अधिष्टायक देव, इन्द्र के पांच रूप हैं। उत्तरकाय
अनुत्तरकाय सुधर्मा, ब्रह्मा ईशान, सनत्कुमार,
पाँच स्थानों के अधिष्टायक देव इन्द्र के पांच रूप : प्रादि बारह देव।
विजय, विजयंतयवंत, जयंत, अपराजित, सर्वार्थसिद्ध । (३) भुवनपाल में असुर, नाग, विद्युत, सुपर्ण आदि १० श्रेणी हैं। (४) व्यंतर में पिशाच, राक्षस, पक्ष, गंधर्व आदि श्रेणी हैं।
इन चार देववर्गों में विशेष षोडशश्रुत या सोलह विद्यादेवियाँ, अष्ट मातृका आदि भी जैनों में पूजनीय हैं । जैनों में वास्तुदेवों की भी परिकल्पना है। इस तरह जैन और हिन्दू (ब्राह्मण) के देववृन्द कई जगह एक से हैं।
बौद्ध प्रतिमाओं की तरह जैन-प्रतिमाओं के अलंकार नहीं होते, क्योंकि वे वीतराग हैं। जैन संप्रदाय में २४ तीर्थंकरों के अतिरिक्त भिन्न देवियां है। २४ यक्ष
१६ विद्यादेवियाँ २४ यक्षिणी
१० दिक्पाल ६४ योगिनियाँ
९ नवग्रह ५२ वीर आदि उपरांत क्षेत्रपाल, प्रतिहार, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देव देवताओं की मूर्ति पायी जाती है। सात्विक वृत्तिवाले जैनदर्शन में प्रारंभ में तांत्रिक विद्या का प्रवेश उसमें नहीं होता पीछे के युग में प्रविष्ठ होता है।
क्षेत्रपाल, प्रतिहार, लक्ष्मी, सरस्वती, आदि अन्य देवी-देवता की मूर्तियाँ भी पायी जाती हैं।
६४ योगिनियाँ और ६४ वीर के नाम जैन ग्रंथों में दिये हैं। तांत्रिक प्राचार पर पूजा के प्रभाव के वे परिणाम माने जाते हैं। बाद में बौद्धों में भी तांत्रिकता का प्रवेश हुआ और उसके फल स्वरूप वैदिक देवों की उपेक्षा होने लगी। बौद्धों की पर्णशबरी देवी विघ्नरूप गणेश को पैर के नीचे दबाती है। बौद्धों के ही लोक्य विजय देव अपने चरण के नीचे शिव और गौरी को कुचलते हैं। कई तोब्रह्मा को जटासे पकड़कर लटकाते हैं। इस तरह प्राचीनतम हिन्दू-वैदिक धर्म के देवताओं की इस तरह की अवगणना या मानहानि-करने से ही संभव है बौद्ध धर्म को भारत से बाहर जाना पड़ा। जैन संप्रदाय ने हिन्दू देवताओं की ऐसी क्रूर हँसी नहीं की है, बल्कि कई हिन्दू-वैदिक देवी-देवताओं को तो उन्होंने स्वीकार भी किया है जैसे देश दिक्पाल और नवग्रह के स्वरूप वैदिक और जैन संप्रदाय में बहुतही मिलतेजुलते हैं। इसी वजह से शायद जैन धर्म यहाँ टिका है। जैनाचार्यों के अमूल्य ग्रंथ साहित्य और स्थापत्य धर्म की बड़ी महत्ता बढ़ाते हैं।
जन प्रतिक्रमण के पाठ में शाश्वत जिन चैत्य का वर्णन कहा है। सौ जोजन लंबे, पचास के विस्तारवाले और ५२ घाट ऊँचे मंदिर प्राचीन समय में बनते होंगे।
होने लगी।
अपने चरण
तम हिन्दू-
क्रम तीर्थकर
१ ऋषभ देव
बाण
चौबीस तीर्थकर का वर्ण लांच्छन और यक्ष यक्षिणी स्वरूप वर्ण लांच्छन __ यक्ष हेम नंदी वरद सुवर्ण वर्ण पाश
चक्र माला गोमुख यक्षा फल
पाश गजासन हेमवर्ण
वरद हाथी पाश श्यामवर्ण अभय माला महायक्ष शक्ति
वरद मुग्दर चारमुख अंकुश
गजासन , अश्व गदा । विमुख यक्ष नाग
वरद नकुल मयूरः वाहन फल
माला अभय श्याम
यक्षिणी चक्रेश्वरी - चक्र अप्रतिचक्र -धनुष गरुड वाहन वन हेमवर्ण अंकुश अजिता देवी अंकुश गौरवर्ण फल गाय वाहन
२ अजित नाथ
पाश
वरद
३ संभव नाथ
श्वेत दुरिता देवी
फल अभय
शक्ति
भेडा
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