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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना विकृत मॉडर्न पार्ट को देखकर दुःख हो यह स्वाभाविक है। देश के प्राचीन कलारसिकोंको चाहिये कि वे उसके विरुद्ध में आन्दोलन करें और भारतीय कला का रक्षण करने का फर्ज अदा करें। कला श्री अथवा सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का अपूर्व साधन है। प्रत्येक कलात्मक रचना में श्री अथवा सौन्दर्य का निवास है। जिस सृष्टिसर्जन में श्री नहीं है वह रसहीन है । रसहीन में प्राण कभी नहीं रहता। जहाँ रस, प्राण और श्री ये तीनों एक साथ रहते हैं, वहीं कला रहती है। कहते हैं कि आनन्द के अनुभव के लिये ही विश्वकर्मा ने सृष्टि की रचना की है। ___वस्तुतः कला इस जीवन के सूक्ष्म और सुन्दर पट पर एक वितान है, कला का प्रत्येक उदाहरण जगमगाते दीपक की तरह हमारे चारों ओर प्रकाश के किरण फैलाता रहता है । शिल्पी कलाकार की भाषा, राष्ट्र का गूढ चिन्तन व्यक्त करने योग्य होती है, शिल्पी की भाषा बहुत अर्थवती होती है, यह सुष्टि देवसृष्टि है, उसमें शिल्पी को शब्दों के द्वारा कुछ कहना नहीं पड़ता, वे शिल्पलिपि के अक्षर, सर्व देश और काल की कला में अपनाअभिप्राय व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। शिल्पी अनगढ़ शिलाखण्ड की धैर्य के साथ पाराधना करता है, उसकी इस निष्ठा के कारण पाषाण द्रवित होकर श्री और सौन्दर्य के रूप में परिणत हो जाता है, वहीं कला की भावना प्राण का संचार कर देती है। भारतीय शिल्पियों की प्रशंसा शिल्पियों ने जड़ पाषाण को सजीव रूप देकर पुराण के काव्य को प्रत्यक्ष रूप दे दिया है, उसका दर्शन करके गुणज्ञ प्रेक्षकगण शिल्पी की सृजनशक्ति की प्रशंसा करते नहीं अधाते, शिल्पियों ने यहाँ टाँकणों के शिल्प द्वारा और तूलिका के चित्रों द्वारा अमर कृतियों का सर्जन किया है, अखण्ड पहाड़ में कुरेदे हुए इलोरा के काव्यमय मन्दिर की रचना तो शिल्पियों की अद्भुत चतुराई की परिचायिका है। भारत के शिल्पियों ने पुराणों के प्रसंगों को पाषाण में ऐसे कुरेदा है कि वे सजीव जान पड़ते हैं, उनके टॉकणों-औजारों की सर्जनशक्ति प्रशंसा के पात्र है। पाषाणशिल्प से शौर्य और धर्मभाव व्यक्त होता है। जड़ को वाणी देनेवाले शिल्पी कवि ही हैं, वे खूब धन्यवाद के पात्र हैं। जड़ पाषाण में प्रेम, शौर्य, हास, करुणा आदि भावों को मूर्तिमन्त करना बहुत कठिन है। चित्रकार रंग और रेखाओं के सहारे उन भावों को आसानी से व्यक्त कर सकता है; परन्तु शिल्पी बिनारंग-रेखा की सहायता के पाषाण में भावों का जो सृजन करता है, वह उसकी अपूर्व शक्ति का परिणाम है। भारतीय शिल्पस्थापत्य आज भी जीती-जागती कला है। उसे अपनी कृति में भाव उतारने होते हैं, जब कि युरोपीय शिल्पी तादृशता का निरूपण करते हैं, उन दोनों के उदाहरण अलग अलग हैं। भारतीय शिल्पियों ने, भारतीय जीवनदर्शन और भारतीय संस्कृति को अपना सर्वोत्तम लक्ष्य बनाकर, राष्ट्र के पवित्र स्थानों को पसंद कर के, वहाँ अपना जीवन बिताकर विश्व की शिल्पकला के इतिहास में बेजोड़ विशाल भवन-स्थापत्य निर्माण किये हैं। भूख और प्यास की बिना पर्वाह किये दीर्घकाय शिलाओं को कुरेदकर, गढ़कर वहाँ मूर्तियों का सृजन करके अपनी धर्मभावना राष्ट्र के चरणों में अर्पित की है। जनता ने भी प्रसन्नता से अपने शिल्पीगण की अक्षय कीति को दसों दिशाओं में फैलाया है। ऐसे शिल्पियों की अद्भुत कला के कारण दुनिया के गुणज्ञों ने भारत को अजर और अमर पद दे दिया है। ऐसे पुण्यशाली शिल्पियों को कोटि कोटि धन्यवाद। भारत के उत्तम कलाधामों पर तेरहवीं शताब्दी के बाद दुर्भाग्य का चक्र घुम गया। छःसौ साल तक उन पर धर्मान्धता के घनप्रहार होते रहे फिर भी भारतीय कला में संस्कृति जीवित रही, उसकी पक्की नींव को वे न हिला पाये। उसके बचेखचे अवशेष भी गौरवपूर्ण हैं। आज भी विदेशी कलाविशेषज्ञ लोग इसे देखकर आश्चर्यमुग्ध हो जाते हैं। भारतीय शिल्पियों ने अपनी कला के द्वारा स्वर्ग-वैकुण्ठ को धरती पर उतार दिया है। राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध प्रेरणादी है। आज राज्यकर्ता सरकार स्थापत्य के प्रति बेदरकार बन गई है, धनीवर्ग उस पर ध्यान न दें ऐसी स्थिति सरकार ने पैदा कर रखी है। आज धर्माध्यक्ष का अस्तित्व ही नहीं है, मतलब कि वर्तमानकाल में कला के प्रोत्साहित करनेवाले धर्माध्यक्ष, धनी और राज्यकर्ता नहीं रहे, यह देश का दुर्भाग्य है। क्षणिक मनोरंजन करनेवाले नृत्य-गीत को फिलहाल राज्याश्रय मिल रहा है, और स्थायी सुन्दर शिल्पकला के प्रति दुर्लक्ष किया जाता है यह बड़े ही अफसोस की बात है। अश्लील स्वरूप भारत के, विशेष करके उत्तर, पूर्व और पश्चिम आदि प्रदेशों के वैदिक, बौद्ध और जैन सम्प्रदाय के मन्दिरों में छोटे बड़े अश्लील स्वरूप किसी कोने में अथवा ग्राम स्थानों पर सब लोग देख सकें इस प्रकार कोरे गये हैं। दीपार्णवशिल्प ग्रन्थ में नरस्त्रीयुग्मसंयुक्ता जंघा कार्या प्रकीर्तिता। देवमन्दिर के गर्भगृह के बाहर की दीवाल, जिसे 'मंडोवर' कहते हैं, उसमें स्त्रीपुरुष के संयुक्त स्वरूप बनाने चाहिये ऐसा विधान For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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