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भारतीय शिल्पसंहिता
१५. नूपुरवादिका:
हंसावली जैसा स्वरूप । पैरों में घुघुरू बांधती, दाहिना हाथ स्कंध तक मुड़ा हुमा । १६. मला:
गले में ढोलक डालकर बजाती और दाहिना हाथ गजहस्त मुद्रा में ।
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१३ नर्तकी
१४ शुकसारिका
१५ नूपुरवादिका
१६ मर्दला
गुजरात के शिल्पग्रंथों में वर्णित न होते हुए भी, कुशल शिल्पियों द्वारा भिन्न-भिन्न काल में बनायी हुई देवांगनाओं के स्वरूप यहां दिये गये हैं। शिल्पियों द्वारा अपनी कल्पना के अनुसार बनायी गई ये देवांगनाएं, अंतिम दो शताब्दियों में बनी हुई दिखाती है। वास्तव में इन मूर्तियों के पीछे कोई शास्त्राधार नहीं है। शिल्पीगण लोकभाषाओं में इन्हें 'पुतली' कहते हैं। इनके नाम और लक्षण प्राकृत भाषा में मिलते है।
इन देवांगनाओं की संख्या भी ३२ है। इस तरह सारी पुतलियों के नाम और उनके लक्षण प्राकृत में मिले हैं। उसमें बणित देवांगनाएँ सर्व प्रकार के प्राभूषण धारण करती है। उसमें प्रादेशिक भिन्नता के कारण कई जगह मस्तक पर मुकुट नहीं पाये जाते है। मस्तक खुले बालबाला होता है।
ये सभी देवांगनाएँ दो सौ वर्षों तक के प्राचीन मंदिरों में, इसी स्वरूप में देखने को मिलती है। पूर्व भारत के कलिंग, उड़ीसा आदि के शिल्पों में और भुवनेश्वर, कोणार्क, जगन्नाथपुरी आदि प्रदेशों के प्राचीन मंदिरों में वे दिखाई देती है। नौवीं सदी के 'शिल्प प्रकाश' नामक कलिंग के शिल्प ग्रंथ में अप्सरा को अलसा कहा गया है। उसमें से सोलह स्वरूपों की खोज करके श्रीमती प्रेलिस बोनर ने अंग्रेजी में एक मूल्यवान ग्रंथ प्रकाशित किया है।
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