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प्राचीन ब्राह्मी
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उलट-पलट से यह प्रतीत होता है कि ई. पू. तीसरी शती में ब्राह्मी के सभी चिह्नों का मूल्य पूरी तरह स्थिर नहीं हुआ था । इस मत का आधार यह अनुमान है कि ब्राह्मी का विकास संस्कृत के लिए नहीं बल्कि प्राकृत विभाषाओं के लिए हुआ था । पर अब यह अनुमान गलत सिद्ध हो चुका है ।
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15. फलक II और III की ब्राह्मी और द्राविड़ी के भेद | 12 फलक II और III में प्रथम काल की निम्नलिखित पन्द्रह लिपियाँ मिलती
142. फलक निम्नलिखित रूप
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तैयार हुए हैं :
फलक II
स्व. I : एरण के सिक्के की एक प्रतिकृति के सहारे बनाया गया है। मिला. क, क्वा. ऐ. इं. फल. II, सं. 18; अ पटना की मुहर (क., आ. स. रि. XV, फल. 2 ) से बनाया गया है ।
स्त. II, III : कालसी की प्रतिकृति (ए. इं. II, 447 तथा आगे ) से अक्षर काट लिए गये हैं ।
स्त. IV, V, दिल्ली - शिवालिक की प्रतिकृति (इं. ऐ. XIII, 306 तथा आगे ) से अक्षर काट लिए गये हैं ।
स्त. VI, VII : जौगढ़ की प्रतिकृति ( ब. आ. स. रि. सा. इं. I, फल. 67, 68, 69 ) से अक्षर काटकर XX VI, रधिया (ए इं. II, 245 तथा आगे ) से; और XLIV, VII, ससराम की छाप के अनुसार बनाया गया है ।
स्त. VIII-X: गिरनार की प्रतिकृति (ए. इं. II, 417 ) के अक्षर काटकर; 34, र, स्त. VII-VIII के बीच में, रूपनाथ ( इ. ऐ., VI, 150 ) की प्रतिकृति से ।
स्त. XI - XII : शिद्दापुर की प्रतिकृति ( ए. ई. III, 134 ) से अक्षर काटकर; 44, XII बैराट सं. 1 की छाप के अनुसार; 45, XI, भरहुत की प्रतिकृतियों (त्सा. डे. मी गे XL, 58 तथा आगे ) के अनुसार । स्त. XIII-XV : ए. ई. II, 323 तथा आगे की प्रतिकृतियों से अक्षर
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काटकर ।
स्त. XVI : ज. ए. सो वं. LVI, 77, फल. 5 की प्रतिकृतियों के अनुरेखण से ।
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