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पढ़ना शेष था । इनके रहस्य की कुंजी अभी विद्वानों के हाथों नहीं लगी थी। अगली शताब्दी के प्रारंभ में इन दिशाओं में भी प्रयत्न शुरू हुए। चौथे दशक में बैंबीगटन ने मामलपुरम के संस्कृत और तमिल लेखों के आधार पर अक्षरों की एक सारणी बनाई । बैंबीगटन से भी अधिक विस्तृत और वैज्ञानिक चार्ट वाल्टर इलीएट ने बनाया जिस में कन्नड़-वर्णमाला के प्राचीन रूपों का तुलनात्मक विवरण था। 1837 में ही हार्कनेस ने Ancient and Modern Alphabets of the Popular Hindu Languages of the Southern Peninsula of India प्रकाशित की । इस प्रकार दक्षिण भारत की लिपियों के पढ़ने का मार्ग भी प्रशस्त हो गया । . ___इधर जेम्स टॉड ने राजस्थान, मध्य-भारत और गुजरात से पर्याप्त संख्या में प्राचीन अभिलेख एकत्र किये । इसी बीच गुप्तों और वलभी के मंत्रकों के अभिलेख भी पढ़ लिये। अतः 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारती-विद्या के विद्वानों के हाथ में वह कुंजी भी आ गयी थी जिससे प्रारंभिक भारतीय अभिलेख भी पढ़े जा सकते थे। अशोक कालीन अभिलेखों के पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिंसेप नाम के विद्वान को है। प्रिंसेप के रूप में पिछले 50 वर्षों के प्रयत्नों को चरम फल मिला। जब तत्कालीन सभी प्राचीन अक्षरों की पहचान हो चुकी थी । प्रिंसेप ने Modifications of the Sanskrit Alphabet from 528 B.C. to A.D. 1200 के नाम से एक चार्ट बनाया जिसमें 18 सौ वर्षों की पूरी भारतीय वर्णमाला दी हुई है। इस चार्ट के देखने से यह पता चलता है कि इस अवधि में प्रत्येक अक्षर में क्या-क्या परिवर्तन हुए। प्रिंसेप ने उचित रूप से ही इस चार्ट को पुरालिपिक कालमापी कहा। .
प्रिंसेप के इस चार्ट के साथ से पुरालिपिक शास्त्र के अध्ययन के इतिहास में प्रथम चरण की समाप्ति होती है, जब कि भारत की प्राचीन वर्णमाला पुनः सजीव होकर बोलने लगी।
प्रिंसेप ने ही अपने इस चार्ट के माध्यम से भारतीय-अभिलेखों के अध्ययन के दूसरे चरण की नींव रखी । अब भारतीय पुरालिपिक शास्त्र की नींव पड़ चुकी थी । पुरालिपिक अध्ययन एक स्वीकृत विषय बन चुका था । 1874 ई० में बर्नल ने प्रथम बार Elements of South Indian Palaeography (from the 4th to the 14th century A.D.) being an Introduction to the Study of South Indian Inscriptions and Manuscripts नाम से इस विषय का पहला ग्रंथ प्रकाशित किया । अब वह समय भी आ चुका था जब विभिन्न शोध पत्रों में अभिलेख की प्रतियाँ.. छपने लगी
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