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दो शब्द मूल ग्रंथ के संबंध में
प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए पुरालेखों का कितना महत्त्व है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं । इन अभिलेखों में कुछ पर तो तिथियाँ अंकित . हैं; किंतु इनमें अधिकांश अतिथिक ही हैं । ऐसे लेखों की अंतर्वस्तु का वास्तविक मूल्यांकन पुरालिपि - शास्त्र की सहायता से उनके काल-निर्धारण के पश्चात् ही संभव होता है । यही इस शास्त्र के अध्ययन की उपयोगिता प्रकट हो जाती है ।
भारत में लेखन कला की उत्पत्ति कब हुई, इसके सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है किन्तु इतना तो निर्विवाद है कि इस देश में मिलनेवाला प्राचीनतम अभिलेख ईसा पूर्व छठी शताब्दी का है । कालान्तर में भारतवासी अपने प्राचीन लिपियों का ज्ञान खो बैठे हैं । प्राचीन लिपियों के पुनः पढ़े जाने का इतिहास बड़ा रोचक है । * कहते हैं सतत् जिज्ञासु अकबर महान् को इस बात की बड़ी उत्सुकता थी कि दिल्ली में अशोक के प्रस्तर-स्तम्भों पर जो लेख खुदे हैं 'उनका अर्थ क्या है । उसकी जिज्ञासा शांत करने के निमित्त तत्कालीन लालबुझक्कड़ पण्डितों ने इन अभिलेखों को 'पढ़कर ' अकबर को बतला दिया कि इनमें शहनशाह की प्रशंसा की गयी है और उसके राज्य के अचल होने की भविष्यवाणी है । पण्डितों के इस निर्वचन से सुधी अकबर के मन की जिज्ञासा शांत हुई या नहीं यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना भी निर्विवाद है कि भारत की प्राचीन " लिपियों के पढ़ने का वास्तविक प्रयत्न आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व ही आरम्भ हुआ था जब सन् 1784 ई० में कलकत्ते में रायल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हुई । इसके अगले वर्ष ही चार्ल्स विल्किन्स ने बादल के प्रस्तर स्तम्भ पर खुदी पाल राजा नारायण पाल की प्रशस्ति को पढ़ लिया । उसी वर्ष पण्डित राधा कान्त शर्मा ने अशोक स्तम्भ पर खुदे वीसल देव चाहमान के लेख को पढ़ लिया । इसी प्रकार शीघ्र ही बराबर की गुफाओं के अन्य सभी लेख भी पढ़ लिये गये । फिर तो एक-एक कर लगभग सभी प्राचीन लेख पढ़े जाने लगे ।
ध्यान देने की बात यह है कि अनेक विद्वानों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप प्रारम्भिक काल में जो लेख पढ़े गये, वे ऐतिहासिक दृष्टि से मध्य हिन्दू-युग के और उत्तर भारत के ही थे । प्राचीनतर और दक्षिण भारत की लिपियों का
* इस इतिहास का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए डा० राजबली पाण्डे कुल Indian Palaeography, Vol. I, पृष्ठ 1 - 22 देखिए ।
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