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खरोष्ठी की उत्पत्ति व्यर्थ ही जड़नी थी इंडो-ग्रीक सिक्कों पर यदाकदा ही मिलती है (7. VI; 20, VI; j, VI), इससे अधिक बार यह चिह्न के बाएँ अलग से लगी मिलती है, जैसे अ (1, VI) और यहाँ तक कि ह (37, VI) में भी। घसीट में इसके लिए सामान्यतया एक बिंदी लगा देते हैं, जैसे ह में (37, VII); तुल० म (2), VII)। अंत में, इंडो-ग्रीक राजाओं के सिक्कों पर मिलने वाले अनेक अक्षरों; जैसे त (20, VII) और न (21, VII) में एक आड़ी आधार रेखा बनायी जाती है, (दे० ऊपर 11, अ, i) शक-काल की खरोष्ठी में अक्षरों की खड़ी लकीरों के नीचे कभी-कभी निरर्थक ही एक हुक, जैसे च (10, VIII)और स(36, IX) में लगाते हैं या दायें को एक लकीर बना देते हैं, जैसे षि(35, VHI) में । कुपान-काल की घसीट लिपि में भी वैसा ही एक हुक (ष, 35, या बायें एक आड़ी लकीर, जैसे अ (1, XI), क (6,X), ध(2.3, XI), न (2+, XIU), बि (27, XI), य (30,X) में और दायें-बायें दोनों तरफ भंग मिलता है जैसे, ख (7, ), च (10, III), धि (16, XI), घि (9,X), ब (27, X), मि (20, 11) में जहाँ भंग स्वर की लकीर में जुड़ी है।
2. शक और कुपान-खरोष्ठियों में क के सिर में सामान्यतया भंग बनता है (G, VIII) और कुपान-खरोष्ठी में यह भंग क के पावाग से जुड़ा है, (देखि० 6, Y)।
3. बाद की सभी खरोष्ठियों में ख के ऊपर का भाग जरा लंबा कर देते हैं और इसे दाई ओर को झुका देते हैं ( 7, VI-XI; 30, XIV)।
4. शक-खरोष्ठी में 10, III से निकला च का एक घसीट रूप भी है। इसमें चिह्न के निचले भाग के बायें किनारे को ऊपरी भाग से एक छोटी-सी खड़ी लकीर के द्वारा जोड़ दिया गया है। इससे भी घसीट वाले ऐसे ही रूप कुपानखरोष्ठी में भी खूब मिलते हैं, देखि० 1), X, और XII !
5. बाद की सभी खरोष्ठियों में छ में अर्गला नहीं मिलती। खड़ी लकीर थोड़ी तिरछी बनती है, इससे निह्न मो की तरह दीखने लगता है।
6. बाद की खरोप्ठियों में ज का बायाँ पहलू करीब-करीब हमेशा गोलाईदार होता है। कुषान-खरोष्ठी में चिह्न के सिर को एक उथले भंग से दिखाते हैं, जिसके बाएं किनारे से अक्षर की खड़ी लकीर लटकती है (12, XI)। इसीसे बिमारन कलश का फंदेदार ज (12, XII) निकला है । पूरा ज जिसमें पैर में एक डंडा आरपार या बाएं को जाता है, इंडो-ग्रीक सिक्कों पर मिलता है (12, VII)।
7. बाद की सभी खरोष्ठियों में ा के एक बगल में खड़ी लकीर जरूर होती है (14, VIII, IA) ।
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