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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र में यह साफ-साफ दीखता है, पर स्त (3), I11), स्ति (35), VI), स्तु (39, VII) और स्त्रि (3), VIII) का निर्माण लापरवाही से हुआ है। स और प का संयुक्ताक्षर भी इसी सिद्धांत से बनाया गया है, पर इसमें स का और अधिक अंग-भंग हो गया है । स्प (3), Y) और स्पि (3), AII) में प की खड़ी लकीर के सिरे पर छोटा-सा हुक लगाकर ही स को इशारे से दिखला दिया गया है। 18 39, XI के स्प में यह हुक प के पाांग में है।
4. 38, VII के संयुक्ताक्षर के दो अर्थ मालूम पड़ते हैं । शाहबाजगढ़ी आदेशलेख X, 1. 21, में यह चिह्न संस्कृत तदात्वाय का अर्थ प्रकट करने के लिए आया है । अशोक के आदेशलेखों की पालि में यह तदत्वये या तदत्तये होगा। मन्सहरा में यह बार-बार संस्कृत आत्मन के प्रसंग में आता है । कुषान अभिलेखों में संस्कृत सत्वानां के प्रसंग में वैसा ही चिह्न (31, XIII) आता है, इसलिए शाह्वाजगढ़ी आदेशलेख Y, 1, 21, में त्व के पाठ की संभावना प्रतीत होती है। इस प्रकार हमें यह मानना पड़ता है कि त के नीचे का भंग व के लिए है, जैसे कि (21, IV) में यह उसी प्रकार के र के लिए है। इस खुलासे की पुष्टि 30, XIII और 37, XIII के संयुक्ताक्षरों से हो जाती है। संभवतः ये श्व (ईश्वर) और स्व (विसहरस्वामिनि) हैं। मन्सेहरा में (खासकर आदेशलेख XII) में 38. VII के चिह्न को त्म ही पढ़ना पड़ेगा।117
12. बाद की खरोष्ठियों में परिवर्तन18
अ. मात्रिकाएं 1. खड़ी लकीर के नीचे जुड़ने वाली ऊपर को जाती हुई लकीर जो
116. O. Franke, Nachr Gott, Grs. d. Wiss, 1895, 540 और त्सा. डे. मी. मे. 1, 603, जिन चिह्नों को मैं स्प और स्पि पढ़ता हूँ उन्हें फ और फि पढ़ने का प्रस्ताव करते हैं।
117. धम्मपद की पांडुलिपि में यही चिह्न त्व, (त्वा) और अत्म (आत्मन् ) के अमित्रों के अंत में मिलते हैं। इससे हमारे खुलासे की पुष्टि होती है ।
118. इंडो-ग्रीक सिक्कों के अक्षरों के लिए देखिए त्सा. डे. मी. गे. VIII, 193 तथा आगे; शक और कुशान लिपि के बारे में देखिए ज. रा. ए. सो. 1863, 238, फल. 4 (जहाँ प्रथम पंक्ति में छ को काट दीजिए । द्वितीय पंक्ति में स के स्थान पर सि, और ठ के स्थान पर ट्ट और तृतीय पंक्ति में र्य के स्थान पर से हो गया है तथा पंक्ति 4 में स्य का चिह्न संदेहास्पद है) तथा ओ. फैके, त्सा. डे. मी. गे. 1, 602 तथा आगे।
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