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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र सं. 7. ज, स्त० III, a--जैन, यह स्त० I, I, U (तइस्मा) जैसे किसी रूप से निकला है। बायें किनारे को और ऊपर मोड़ दिया गया है। जिससे स्त० III का खरोष्ठी अक्षर पैर की लकीर काट देने पर बना है। पेपाइरी स्त० II और विकसित रूप है, जो तुलना करने के योग्य नहीं ।
__ सं. 8. श, स्त० III = थ, स्त० I (तइस्मा) । भारतीय श की ध्वनि तालव्य Xa से बहुत मिलती जर्मन ich जैसी है।
सं. 9, य, स्त० III = योद, यह अक्षर या तो स्त० I, b से या सीधे स्त०I, a (असीरियाई बाट) जैसे किसी रूप से निकला है। इसमें दायें का डंडा हटा दिया गया है, (दे० प्रारंभिक टिप्पणी 1); इसके उत्तरकालीन पामीरी और पहलवी समानरूप (यूटि० TSA, स्त० 21-25, 30-32, 35-39, 58) में मिलते हैं ।
सं. 10, क, स्त० III,-काफ । स्त० I, b (असीरियाई बाट, बैबिलोनियाई . मुहरों आदि में) को दायें से बायें को पलट दिया गया है और ऊपर एक लकीर जोड़ दी गई है, ताकि इसे नये चिह्न ल (सं. 11, स्त० III और प (सं. 15, स्त० III) से अलग पहचाना जा सके । पेपाइरी स्त० II इससे एक दम भिन्न चिह्न है।
सं. 11, ल, स्त० III=लमेद, स्त० 1, a, c (तइस्मा) जैसा रूप है । इसे सिर के बल उलटा खड़ा कर दिया गवा है, क्योंकि केवल पैरों में जोड़ लगाने से अरुचि थी (दे० प्रारंभिक टिप्पणी, 1) भंगदार रेखा को तोड़ कर नीचे की ओर जोड़ दिया गया है ताकि इसे नये अक्षर अ से अलग किया जा सके ।
सं. 12. म, स्त० III, a, b,--मेम, यह अक्षर स्त० I, a, b, (सक्कारा) जैसे किसी रूप से निकला है जिसके सिर पर भंग है । इसकी रचना में तिरछी रेखा और दायें तरफ की खड़ी लकीर को छोड़ दिया गया है। इसी से आधा गोलेवाला अशोक के आदेश-लेखों का म अक्षर (स्त० III, C) बना । स्वरचिह्नों की वजह से यह और भी खंडित हो गया है । स्त० II, पेपाइरी का रूप खरोष्ठी के म का पूर्व रूप होने के काबिल नहीं है।
सं. 13 न, स्त० III, a = नून, स्त० I a, b, (सक्कारा)। इससे बाद में न का स्त० III, b वाला रूप निकला । स्त० II, पेपाइरी का न भी इस का पूर्व रूप नहीं हो सकता ।
सं. 14, स, स्त० III, =समेख, स्त० I (तइस्मा) । ढलुवा डंडे को सिर की रेखा के बायें रख दिया गया है जहाँ से यह लटक रही है। उससे नीचे के सिरे को चिह्न की दुम से मिला दिया गया है । जिसे और बायें ढकेल दिया गया है । (दे० बु; इं. स्ट III, 2, 105) ऐसा ही विकास नबतियाई
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