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खरोष्ठी की उत्पत्ति
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(अ) गृहीत चिह्न 112
प्राथमिक टिप्पणी --अरमैक चिह्नों में परिवर्तन मुख्य रूप से इन सिद्धान्तों के अनुसार हुए हैं : ( 1 ) लोगों का झुकाव लंबी दुमों वाले अक्षर लिखने, अक्षरों के सिरों पर जोड़ लगाने, अक्षरों के निचले भागों में उ, की मात्रा र और अनुस्वार जोड़ने के लिए जगह खाली छोड़ देने की ओर था । केवल निचले भाग में जोड़ लगाने के प्रति उनकी अरुचि थी ( 2 ) ऐसे चिह्नों के प्रति अरुचि थी जिनके सिरों में दो से अधिक रेखाएं ऊपर की ओर उठी हों; या सिरों में तिरछी लकीरें हों या नीचे कोई लटकन होइन सभी विशिष्टताओं की वजह से इ, ए और ओ की मात्राएं लगाने में भोंडापन आ जाता । ( 3 ) ऐसे चिह्नों में फर्क करने की भी इच्छा थी जिनको इन सिद्धांतों के अनुसार बदलने से ये एक से दीखने लगते । सं. 1, क, स्त० III, = अलेफ, स्त० I a, ( सक्कारा) इसमें सिरे में घसीटकर लिखने से फर्क आ जाने के कारण मोड़ बन गया है; अक्षर की स्थिति और उसका आकार ऐसा है कि स्त० से कोई संबंध जुड़ना असंभव हो जाता है ।
I, b या स्त० II के आकारों
सं. 2, ब, स्त० III,= बेथ, स्तo I a, b ( तइस्मा, सक्कारा) दायें के कोण के लिए घसीट भंग बन गया है । पेपाइरी के बेथ, स्त० II, b, c के घसीट रूप खरोष्ठी चिह्नों से भी आगे के विकसित रूप हैं ।
सं. 3. ग, स्तं० III = गिमेल, यह स्त० I से निकला है या वैसे ही किसी रूप से ( मिला० स्त० II, और यूटिंग, TSA 1, a ) । इसमें दायें एक घसीट फंदा है और बायें एक भंग, पश्चात्कालीन संयुक्ताक्षरों में ऐसे फंदे बहुत मिलते हैं, देखि० फल० I, 33, 35, 36, XII; 34, XIII; यहां तक कि ज में भी मिलते हैं, फल० I, 12, XII ।
सं. 4. द, स्त० है, जो स्त० 1, a के
III - - दलेथ, यह स्त० II, 6 जैसे किसी रूप से निकला अनुसार ई. पू. 600 के असीरियाई बाटों पर मिलता है । सं. 5, ह, स्त० III = हे, यह स्त० I, a ( तइस्मा) जैसे किसी रूप से निकला है । भंग के मध्य की लटकन को पैर के दायें सिरे पर रख दिया गया है ताकि इ, ए और ओ की मात्राएं लगाने में सुविधा हो । (दे० प्रारंभिक टिप्पणी 2, और सं. 17 ) ।
सं. 6 व स्त० _III- वाव, स्त० I ( तइस्मा, सिक्कारा), स्त० II की पेपाइरी में इस के और आगे का विकसित रूप है ।
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112. बु. इं. स्ट. HI, 2, 99 तथा आगे : मिला. प्रि. इ. ऐ. ii, 147, 1 में थामस के लगभग भिन्न मत से, टेलर, दि अल्फाबेट ii, पृ. 236 का फल . ; हलेवी, ज. ए. 1885, ii, 252 तथा आगे, रिथ्यू सेमिटिके, 1895, 372 तथा आगे ।
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