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भारतीय पुरालिपि शास्त्र ___ सं. 15, स, ष, स्त० V, IV=समेख (वेबर संदिग्ध रूप में); स्त. I b की भाँति के समेख को हिन्दुओं ने घसीट बना दिया जैसा कि स्त० IV में दिखाया गया है, इसे ही सिर के बल उलट कर रख दिया गया है ; जिससे स्त० V का द्राविड़ ष बना। मूलतः यह स और ष दोनों का काम करता था । फिर बाद में यही चिह्न एक व्युत्पत्ति वाले स और ष अक्षरों में बाँट दिये गये । बीच की अर्गला को भंग के बाहर कर देने से दक्षिणी ब्राह्मी का स्त० VI a का
और घुमाकर स्त० VI b का स अक्षर बन गया। डंडे को भंग के भीतर कर देने से उसी लिपि का स्त० VI C का ष अक्षर बन गया। द्राविड़ी ने पुराना चिह्न तो ष के लिए ही रखा, नया चिह्न उसने स के लिए ले लिया। उत्तरी ब्राह्मी ने दक्षिणी स से स्त० VI d का भंग वाला रूप विकसित किया। और इससे स्त० VI का नया ष विकसित किया। ई.पू. छठी शताब्दी के स्त० III के समेख से सीधे द्राविड़ी ष की उत्पत्ति संभव नहीं है। इसका कारण सं. 5 में दिया जा चुका है। इसमें अर्गला का भी अभाव है जो इसकी विशिष्टता थी। ___ सं. 16. ए, स्त० V=ऐन, स्त० I, II (वेबर)। कालसी के स्त० IV वाले और स्त० V, b के प्राचीन रूपों तथा सांची और हाथीगुंफा स्त०V में अक्षर का कोई रूप परिवर्तन नहीं हुआ है, या हुआ भी है तो अत्यल्प । किन्तु बाद में, स्त० V, c,d, e में इसे त्रिभुजाकार कर दिया गया है ताकि ठ और ध के रूपों से कोई झमेला न खड़ा हो ।
सं. 17, प, स्त० V=फे, स्त० I, II (वेबर)। सिर के बल अक्षर को उलट दिया गया है । एरण, स्त० IV में अपने मूल रूप में है। स्त० V में इसे बगल की ओर घुमा दिया गया है ।
सं. 18, च, स्त० V=त्सादे, स्त० I, II (वेबर) अक्षर सिर के बल उलटा रख दिया गया है। दायीं ओर का दूसरा हुक खड़ी रेखा की ओर भी झुका है, जैसा कि स्त० IV के कल्पित रूप में है। इसी से स्त०V, a, b का ब्राह्मी का कोणीय या गोला च, और स्त० V, ८ वाला दुमदार द्राविड़ी च बना। ___ सं. 19. ख, स्त० V,=कोफ, स्त० I, II । अक्षर को सिर के बल उलटा कर दिया गया है। सिर पर एक भंग जोड़ दिया गया है, (स्त० V, a,) ताकि व से इसे पृथक् किया जा सके। स्याही के प्रयोग की वजह से पैरों का वृत्त एक बिंदी में परिवर्तित कर दिया गया, स्त० V, b ।
सं. 20, र, स्त० V=रेश, स्त० I, II (वेबर) । अक्षर के सिरे के त्रिभुज को खोला गया है और खड़ी रेखा को पुराने त्रिभुज के आधार में जोड़
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