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ब्राह्मी की उत्पत्ति
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जिसमें एक फंदा है । स्याही से लिखने में फंदे के बदले एक बिंदी बन गयी है जैसा कि स्त० V, c में है । गिरनार का सामान्य रूप स्तo V, d है । यह भी द्राविड़ रूप से ही निकला है । इसे दो बार में लिखा गया है । सं. 8, घ, स्त० V, a, b, चथ, स्तo I, II, ( टेलर ), । सेमेटिक चिह्न को ( यह प्राय: ढलुआं हो जाता था ) बगल में डाल दिया गया है (स्तं. IV) ऊपर के पड़े बलवाले डंडे को खड़ी रेखा में बदल दिया गया हैं ।
सं. 9, थ, स्त० V, थेथ, स्त० I ( वेबर ), बीच के क्रास के स्थान पर केन्द्र में एक बिंदी रह गई है, जैसा असीरियन अक्षर ( स्त० III ) में भी हुआ है । सं. 10, य, स्त० V - योद ( वेबर ), स्त० III के योद को बगल में रख दिया गया है, स्त० IV में बीच की रेखा लंबी कर दी गई है । दायें की लटकन और ऊपर मुड़ गई है। इस प्रकार स्त० V का 4 वाला रूप बना, फिर उससे स्त० V, के b, c वाले घसीट रूप बने ।
सं. 11, क, स्त० V, a, b, = काफ, स्त० II जैसे रूप के बगल के डंडे को खड़ी रेखा के सिरे के रूप में बदल कर फिर चिह्न को सीधा कर दिया
गया है ।
सं. 12, ल, स्त० V, लमेद, स्त० I, II, ( वेबर ) | कुछ भिन्न द्राविड़ी ळ (स्त० VI) (दे० नीचे आ, 4, ग) और एरण ( स्त० IV) में अपनी मूलस्थिति में सुरक्षित है । एरण में भंग के सिरे पर शोशा है । अशोक के आदेश - लेखों में, ( स्त० Va) अक्षर की दिशा सदा की तरह दायें से बायं हो गई है, द्राविड़ी ल; (स्त० Vb ) में दायीं ओर एक पूंछ लटक रही है, जिसमें कोई शोशा नहीं है ।
सं. 13, म, स्त० V, = मेम ( वेबर ) | यह स्त० II जैसे रूप से निकला है । झुकी लटकन फंदे के रूप में बदल गई है जैसा कि स्त० IV के कल्पित रूप में दिखाया गया है (ऐसा ही विकास यूटिंग, टॅ. स्क्रि. अ. स्त० 58, a में है ) और फंदे पर कोण का अध्यारोप हो गया है ( स्त० Va ) ; ऐसा ही विकास यूटिंग, टै. स्क्रि. अ. स्त० 59, c में है) जिससे स्त० Vb का घसीट रूप निकला है जिसमें सिरे पर अर्द्ध वृत्त है ।
सं. 14, न, स्त० V= नून ( टेलर ) स्त० I II के नून को स्त० IV की भाँति सिर के बल उलट कर रख दिया है, पैर की हुक सीधी लकीर बन गई है, इसकी साक्षी स्त० VI का अक्षर है, यह रूप उस कल्पित रूप से बना है जिसमें हुक को नियमित कर दिया गया है और अक्षर को अलग करने के लिए सिरे पर एक डंडा जोड़ दिया गया है । (दे० नीचे आ, 4, घ)
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