________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८
भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
(2) और (3) का कारण बतलाया जायेगा। यदि ये पूर्व पक्ष सही हैं तो निश्चय ही इसका मतलब यह हुआ कि भट्टिप्रोलु के लेख की तिथि चाहे जो हो, सत्य यह है कि द्राविड़ लिपि अपने मूल वंश से एरण के सिक्के के बहुत पहले, अधिक से अधिक समय ई० पू० पाँचवीं शताब्दी में, अलग हो चुकी थी।
यह अनुमान हमें उस काल में वापस ले जाता है, जब सिंहली-आगम के अनुसार भारत में लेखन-कला सामान्य प्रयोग में थी, यद्यपि सिंहली-आगम उस लिपि का नाम नहीं बतलाता। इससे यह अनुमान स्वाभाविक हो जाता है कि प्राचीनतम बौद्ध लेखक जिस लिपि से परिचित थे वह ब्राह्मी का ही एक रूप थी। इस मत की पुष्टि के लिए कुछ और भी तथ्य हैं। प्रथमतः हाल की खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि ब्राह्मी उत्तरी-पश्चिमी भारत में भी अत्यंत प्राचीन काल से प्रयोग में थी और यही सही माने में सभी हिन्दुओं की राष्ट्रीय लिपि थी। प्राचीन तक्षशिला के खंडहर पंजाब के शाहडेरी में (अब पाकिस्तान में) हैं। यहाँ प्राचीन भारतीय मानक के सिक्के मिले हैं । कुछ सिक्कों पर खरोष्ठी में लेख हैं, पर अधिकांश सिक्कों पर प्राचीनतम प्रकार की ब्राह्मी में लेख है । कुछ पर ब्राह्मी के साथ खरोष्ठी में भी लेख हैं।67 इन सिक्कों का समय ई० पू० तीसरी शताब्दी के बाद का नहीं हो सकता। कनिंघम के मत से तो ये सिक्के और भी प्राचीन अर्थात् ई० पू० चौथी शताब्दी के हैं। इनमें कुछ सिक्के तो दोजक या दूजक, तालिमत और अतकतका (?) के नेगमा (निगमों) द्वारा जारी किये गये हैं । एक पर वटस्वक लेख खुदा है । यह सिक्का सम्भवतः अश्त्रकों (अस्सिकिनोई) की किसी शाखा ने जारी किया था। इनका नाम वट वृक्ष पर पड़ा था, जो धार्मिक दृष्टि से बड़ा पवित्र माना जाता है । इन सिक्कों से यह बात निश्चित हो जाती है कि पंजाब में कम से कम ई० पू० तीसरी शताब्दी में खरोष्ठी के साथ-साथ ब्राह्मी लोक-कार्यों में प्रयुक्त होती थी। रैप्सन ने ईरानी सिग्लोई के मान के सिक्कों की खोज की है जिनपर खरोष्ठी
और ब्राह्मी दोनों अक्षरों में लेख हैं। इनसे इन दोनों लिपियों के और पहले प्रयोग होने के प्रमाण मिल जाते हैं। 68 संभवतः सिग्लोई मान के सिक्के उत्तरी पश्चिमी भारत में अखमनी शासन में या ई० पू० 331 से पूर्व प्रचलित थे!
दूसरे, खरोष्ठी की उत्पत्ति के संबंध में डा० टेलर का मत संभाव्य से संभाव्यंतर दीखने लगा हैं । अब यह बात माननी पड़ेगी कि यह लिपि दारा द्वारा
66. क०, क्वा. ऐ. इं. पृ. 38 तथा आगे 67. वही फल० 2, 3 68. वी. त्सा. कु. मो. 9, 65; ब्रु. इं. स्ट. III, 2, 113.
18
For Private and Personal Use Only