________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारतीय पुरालिपि-शास्त्र अशोक के आदेश-लेखों में यदा-कदा नन्ही-सी शिरोरेखा के भी दर्शन होते हैं जो बाद की लिपि को विषेशता है। इससे बहुत-से रूपभेद होते हैं ।। आ और ए की मात्राओं की ऊर्ध्वगामी लकीर तथा इ की मात्रा की घसीट गोली लकीर प्रायः मिलती है। गिरनार में तो कभी-कभी आ और इ के मात्रा-चिह्नों में कोई फर्क ही नहीं मालम देता। उत्तर-कालीन ओं की मात्रा की सीधी लकीर कम मिलती है। ओ मात्रा का फंदानुमा रूप भी एक बार प्रयोग में आया है । अंत में, अनुस्वार कभी कभी उस अक्षर के ऊपर रहता है, जिसके बाद उसका उच्चारण होता है । 1 बाद में ऐसा ही होता रहा है ।
अनेक स्थानीय रूपों का पाया जाना, और इतने घसीट रूपों का होना यह सिद्ध करता है कि अशोक के समय में लेखनकला का इतिहास काफी लम्बा रहा होगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय लिपि संक्रमण की स्थिति में थी । पुरागत रूपों के साथ-साथ घसीट रूपों के इस्तेमाल का खुलासा संभवतः इस अनुमान से हो जाता है कि ई० पू० तीसरी शताब्दी में अनेक शैलियों का प्रयोग होता था, इनमें कुछ तो अंशत: अधिक पुरानी थीं, और कुछ अंशतः अधिक विकसित । लेखक अपनी मर्जी से या हुक्म पाकर जब पत्थरों वाले रूप लिखते थे तो असावधानी से उसमें घसीट अक्षर भी लिख जाते थे क्योंकि, ऐसे अक्षरों का उन्हें काफी अभ्यास होता था। बाद के अभिलेखों में भी ऐसी घटनाएं मिलती हैं। इस मत की पुष्टि में उपर्य क्त दष्टिवाद की उस परंपरा का जिक्र किया जा सकता है जिसमें ई० पू० 300 में अनेक लिपियों के प्रयोग की चर्चा है। यदि हम यह सिद्ध कर सकें कि धौली में अशोक के छठे आदेश-लेख में सेतो-श्वेत (हाथी) शब्द भी उसी समय खोदा गया था जब कि तत्पूर्व लेख तो यह अनुमान प्रमाण में बदल जायेगा। यह शब्द उस मूर्ति को स्पष्ट करने के लिए जोड़ा गया है जिसके नीचे यह लिखा हैं। सेतो के दोनों अक्षरों का वही रूप है जो कुशाण और गुप्त अभिलेखों में मिलता है । यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि बाद में किसी को उभरी मूत्ति के स्पष्टीकरण का ध्यान आया होगा और उसने लेख की पंक्ति का भी व्यान रखा होगा। किन्तु इस बात की सम्भावना से भी बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि वास्तविकता यही है कि ये शब्द बाद में जोड़े गये हैं।
59. देखि. आगे 16 इ 61. देखि. आगे 16 ई.
60. देखि. आगे 16 इ 62. ब., आ. स. रि. सं. इं. 1. 115
16
For Private and Personal Use Only