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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र सभ्यता काफी विकसित थी, विशेषतः व्यापार के क्षेत्र में उन्होंने काफी उन्नति की थी, वैदिक ग्रंथों में धन के पेचीदे लेन-देन का उल्लेख है, ब्राह्मण-ग्रंथ गद्य में हैं, वैदिक ग्रंथों के संग्रह, उनके पाठक्रम आदि सुव्यवस्थित हैं। इसी प्रकार वेदाङ्गों में व्याकरण, ध्वनिशास्त्र तथा कोशकला की दष्टि से भी जो शोधे हई हैं29 उनके आधार पर विद्वान् लेखन-कला की प्राचीनता का प्रमाण देते हैं । इन तर्कों में कितना बल है इस बारे में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। इनमें कुछ तों में, विशेषकर प्रथम और अंतिम में काफ़ी ज़ोर है। किन्तु अभी विद्वान् इनकी ग्राह्यता के बारे में एकमत नहीं है। असंभववाची तों (argumentum ex-impossibili) के बारे में ऐसा होता ही है। संस्कृत के विद्वानों ने इस संबंध में जो खोजें की हैं उनसे और व्योरेवार विशेष खोजें क्यों न हों, इन प्रमाणों के बारे में ऐकमत्य होना कठिन है।
जहाँ ऐसे तर्क सामान्यता शीघ्र मान्य न होंगे, वहीं मौनता का तर्क (argumentum ex-silentio) भी हमें छोड़ देना होगा, जैसे; यदि किसी वैदिक ग्रंथ में लेखन-कला का उल्लेख नहीं मिले, तो उस आधार पर यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि उक्त ग्रंथ की रचना उस काल में हुई होगी जब भारतीयों को लिखने का ज्ञान न था। मौनता का तर्क निश्चय ही अकाट्य नहीं होता। यद्यपि हिंदू हजारों वर्षों से लगातार लेखन का प्रयोग करते आये हैं, किंतु आज भी वे लिखित से अधिक मौखिक का आदर करते हैं, क्योंकि उनकी सारी साहित्यिक और वैज्ञानिक चर्चाएं मौखिक ही होती रही हैं। विशेषकर वैज्ञानिक कृतियों में तो लेखन कला या हस्तलिखित ग्रथों का उल्लेख विरले ही होता है । यद्यपि हिन्दू हस्तलिखित ग्रंथों को 'सरस्वती-मुख' कहते हैं और बड़ी श्रद्धा से उनकी पूजा भी करते हैं, किंतु आधुनिक हिन्दू भी वेद-शास्त्र का निवास आचार्य के श्री मुख में ही मानते हैं । आचार्य की वाणी का उनके लिए किसी भी लिखित पुस्तक से अधिक मूल्य है । उनके विचार से वेद और शास्त्र का सम्यक् अध्ययन गुरुमुख से ही संभव है, किसी पुस्तक की सहायता से नहीं। हमारे समय में भी हिन्दू मुखस्था विद्या का ही आदर करते हैं। यह विद्या पंडित की स्मृति में ही मुद्रित होती है। शास्त्रार्थों में यही विद्या काम आती है । आधुनिक भारतीय
29. ह्विवटनी, ओरि. ऐंड लिंग्वि. स्ट. 82; ज. अ. ओ. सो. 6, 563%; बन्फे, त्सा. डे. मी. गे. 11, 347; व्युटलिंग, पीट. आकादे० 1859, 347%; पिशेल और गेल्डनर, वेडिशे स्टडीएन I, XXIII, XXVI; जे.डी. ड्यूलमन, डास महाभा. 185; इन मतों के विरुद्ध मत देखिए मै. मू. ऋ. वे. 4, वही; इत्सिग X तथा आगे के अंश के तककुसु के अनुवाद में; वे., 5, वही
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