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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र पहला उदाहरण राष्ट्रकूट राजा ध्रुव के सन् 834-35 के बड़ोदा ताम्रपट्ट में मिलता है ।481 अस्पष्ट अंश बताने के लिए कुंडल या स्वस्तिक बनाते थे; देखि. कश्मीर रिपोर्ट, 71, और कीलहान, महाभाष्य 2, 10, टिप्पणी ।
पश्चिमी भारत में संक्षिप्तियों का सबसे पुराना प्रमाण आंध्र-राजा सिरि पुळमायि के एक अभिलेख में (नासिक, सं. 15) जिसकी तिथि लग. 150 ई. है और उसके प्रायः समकालिक सिरिसेन या शकसेन माढरीपुत के अभिलेख (कण्हेरी, सं. 14) में मिला है। उत्तर-पश्चिम के कुषानकालीन अभिलेखों में ऐसी संक्षिप्तियाँ पर्याप्त मात्रा में मिलती हैं। इनके सर्वाधिक प्रचलित उदाहरण हैं: संव, सव, सं और स= संवत्सर; नि, गृ या गि-ग्रीष्माः या गिम्हानं; ववर्षाः; हे= हेमन्तः; प-पखे; और दिव या दि=दिवस । ये तभी मिलती हैं जब तिथियाँ अंकों में दी जाती हैं। इस प्रसंग में ये बाद के अभिलेखों में ही नहीं अपितु आज भी प्रयोग में आती हैं। किंतु उत्तर कालों में हमें संवत् के बाद वर्ष की संख्या फिर मास का नाम फिर पक्षनाम और तब तिथि मिलती है । संवत् कभी-कभी अंतर्वक्रित भी रहता है ।182 शुक्ल पक्ष की तिथि से पूर्व शु या सु दिशुद्ध या शुक्ल-पक्ष-दिन या कश्मीर में शु या सुति (तिथि) और कृष्ण पक्ष की तिथि से पूर्व ब या व, दि=बहुल या बहुल-पक्ष दिन या कश्मीर में बति मिलता है। ___ छठी शती से पश्चिम भारत के अभिलेखों में यत्र-तत्र दूसरे शब्दों की भी संक्षिप्तियाँ मिलने लगती है । जैसे दूतक के लिए दू, द्वितीय के लिए द्वि ।483
बाद में, विशेषकर 11वीं शती से कबीलों, जातियों आदि के नामों की संक्षिप्तियाँ बहु-प्रचलित हो जाती हैं । हस्तलिखित ग्रंथों में तो संक्षिप्तियाँ अति प्राचीन समय से मिलती हैं । जैसे खोतान के धम्मपद (पेरिस वाले टुकड़े) में एक वग्ग के अंत में गाथा 30 के लिए ग 30 आया है,और बावर की प्रति के फल. II में श्लोक के लिए श्लो. और पाद के लिए पा प्रत्येक खंड के अंत में आता है। 12वीं शती के अभिलेखों और हस्तलिखित ग्रंथों में नामों के साथ--तिथियों के
481. इं. ऐ. XIV, I96; मिला. फ्लीट, ए. ई. III, 329; और कीलहान, ए. ई. IV, 244, टि. 7.
482. कीलहान के एक पत्र के आधार पर।
483. इं. ऐ. VII, 73, फल. 2, पंक्ति 20; XIII, 8-4, पंक्ति 37, 40; XV, 340, पंक्ति 57.
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