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संख्यक लेखन
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प्रणालियाँ दक्षिण भारतीय हैं । इन दोनों प्रणालियों में ध्वन्यात्मक दृष्टि से विन्यस्त अक्षरों का प्रयोग होता है । पहली प्रणाली 125 में केवल हलन्त व्यंजनों काही महत्त्व है । इनका संख्यांकों में मूल्य निम्नलिखित है ।
1 2 3 4 5 6 7 8 9 0
क् ख् ग् घ् ङ ट् ठ् ड् ढ् ण् प् फ् ब् भ् म्
च् छ् ज् झ् ञ् त् थ् द् ध् न्
1 2 3 4 5
1 2 3 4 5
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= 1 2 3 4 5 6 7 8 9
।
य् र् ल् व् श् ष् स् ह ळ्. व्यंजनों का इस्तेमाल स्वतंत्र रूप से नहीं होता । इनका इस्तेमाल तिथि - पत्रों के निर्माण में होता है जिनमें स्वर और संयुक्त व्यंजन भी होते हैं । इनमें अंतिम का ही संख्यात्मक मूल्य होता है । इन तिथि-पत्रों से जो अंक मिलते हैं. उनमें इकाइयाँ हमेशा बाईं ओर रहती हैं और पूरी संख्या को घुमाना पड़ता है । इस लेखन प्रणाली का एक मनोरंजक उदाहरण सर्वानुक्रमणी की षड् गुरुशिष्य टीका के अंत में मिलता है जो संभवतः इसका सबसे प्राचीन उदाहरण है । ( मैकडोनेल, पृष्ठ 168 ) । कील हार्न का इस तिथि - लेख का संशोधन भी निश्चय ही ठीक है । तिथि लेख निम्नलिखित है : 426
2 3
I
565
1
खगो
= न्त्यान =
मेषम्
आप
लेखक के मत से ही इसका मूल्य 1565132 है । इसके ही अनुसार यह संख्या उतने दिनों की है जितने कलियुग के प्रारंभ से अब तक बीत चुके हैं । इसी संख्या से हमें 24 मार्च 1184 की वासंतिक विषुव तिथि प्राप्त होती हैं जिस दिन ग्रंथ पूरा हुआ था । तिथि लेख के शाब्दिक अर्थ से भी यही विषुव तिथि प्राप्त होती है : "अंतिम (राशि) से सूर्य मेष राशि में पहुँचा " ।
6 7 8 9 0
दूसरी प्रणाली जिस पर अब विचार करना है 127 अभी तक लंका, स्याम और बर्मा में हस्तलिखित ग्रंथों के पृष्ठांकन में काम में आती है । बर्नेल के मत से पहले दक्षिण भारत में भी इसका प्रचलन था । इसमें ब्राह्मणों की बाराखड़ी ( देखि. ऊपर पृष्ठ 6 ) का इस्तेमाल होता है । बर्नेल के मत से क से ळ तक अक्षर 1 से 3-4 के बराबर हैं और इसी प्रकार का से ळा तक 35 से 68; कि
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425. मिला. ब, ए. सा. इं. पै., 79; वे., इं. स्ट्रा VIII, 160; इं. ऐ. IV, 207.
1
426. इं. ऐ. XXI, 49, सं. 4. 427. व., ए. सा. इं. पै. 80.
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