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VI संख्यांक-लेखन 33. खरोष्ठी के संख्यांक : फलक IGA ई. पू. पहली शती और ईसा की पहली और दूसरी शती के शकों, गोंडोफरस और कुषानों के खरोष्ठी अभिलेखों में और संभवतः बाद के भी प्रलेखों में हमें संख्यांक-लेखन की एक प्रणाली मिलती है (फल. I, स्त. XIV) 365 । सबसे पहले डाउजन ने तक्षशिला ताम्रपट्ट 66 की सहायता से इसका स्पष्टीकरण किया था।
इसके मूलभूत चिह्न हैं : (क) ], 2, और 3 के लिए क्रमशः एक, दो और तीन खड़ी रेखाएं; (ख) 4 के लिए एक झुका क्रास, (ग) 10 के लिए खरोष्ठी अ जैसा चिह्न, (घ) 20 के लिए दो भंग जो देखने में 10 के चिह्न को घसीट में दो बार लिखने से बना मालूम पड़ता है (बेली), (च) 100 के लिए ब्राह्मी त या त का चिह्न जिसके दाएं एक खड़ी लकीर है। इसी प्रकार पूरा चिह्न = 1 सौ हो जाता है । ____ इन अवयवों के बीच की संख्याएं समूहों से प्रकट करते हैं । अतिरिक्त संख्या को हमेशा बाएं रखते हैं। जैसे 5 के लिए 4(+) 1; 6 के लिए 4(+)2; 8 के लिए 4 (+)4; 50 के लिए 20 (+) 20 (+)10; 60 के लिए 20(+) 20(+) 20; 70 के लिए 20(+-) 20 (+)20 (+) 10 लिखते हैं । 10(+) 1 से 10 (+) 9 और 20 (+) 1 से 20(+) 9 और इसी तरह आगे समूह बनाकर 11 से 19 और 21 से 29 और आगे की संख्याएं बतलाते हैं।
364. मिला. ई. सी. बेली, दि जीनिओलाजी आफ दि माडर्न न्यूमरल्स, ज.ए. सो.बं. (न्यू. स.), XIV, 335 तथा आगे; XV, पृ. 1 तथा आगे।
____365. स्तं. XIV के चिह्न से. नी. ए. ई. 3, फल. 1 (ज. ए. 1890 I फल. 15); ज. ए. सो. ब. LVIII, फल. 10; तक्षशिला तामपट्ट की फ़ोटोप्रति (ए. ई. IV, 56); और वार्डक कलश की एक जिलेटिन प्रति के आधार पर बनाये गये हैं जो मुझे ओल्डनबर्ग ने दी थी । 366, ज. रा. ए. सो. XX, 228 ।
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