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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र शासनों और उसी राजा के तिरुनेल्लि ताम्रपट्टों का प्रकाशन360 इनकी प्रतिकृतियों के साथ हो चुका है। बर्नेल ने इनमें प्रथम दो प्रलेखों को 8वीं शती का बतलाया है,361 पर उन्होंने इस मान्यता के जो आधार दिये हैं, वे कमजोर हैं । यहूदियों के शासन के अक्षर ग्रंथ-लिपि के तीसरे और अंतिम विभेद के हैं। इस प्रलेख के अंत में आये नागरी शा या शी (शायद श्री: के लिए) की ओर हुल्श ने ध्यान आकर्षित किया है। 362 यह चिह्न 10वीं-I1वीं शती के नागरी रूपों से मिलता है (मिला. फल. V, 39, 47, VIII; 48, X)।
पुरालिपि-शास्त्र की दृष्टि से हम वट्टेळुत्तु को घसीट लिपि कह सकते हैं । इसका तमिल से वही संबंध है जो क्लर्कों और सौदागरों की आधुनिक उत्तरी लिपि का अपनी मूल लिपि से है; जैसे मराठों की मोड़ी का बालबोध से और डोगरों की टाकरी का शारदा से है ।363 केवल ई अक्षर को छोड़कर, जो संभवतः ग्रंथलिपि से उधार लिया गया है, शेष सभी अक्षर एक ही बार में हाथ को बिना उठाये बायें से दायें को लिखे जाते हैं। अधिकांश अक्षर बाईं ओर को झुके हैं। इनमें अनेक में जैसे ड में (फल. VIII, 15, XXI) जिसमें बाईं ओर को भंग और हुक है; व में जिसका सिरा खुला है और बाईं तरफ हुक है (फल. VIII, 38, XXI, XXII; मिला. स्त. XVII--XX), और गोल र में (फल. VIII, 45, 46, XXI, XXII; मिला. 47, XVII-XX), 11वीं और बाद की शताब्दियों की तमिल के दूसरे विभेद की विशिष्टताएं दिखलाई पड़ती हैं । उत्तरकालीन तमिल अभिलेखों की भाँति इसमें भी विराम का लोप मिलता है । कुछ दूसरे अक्षर जैसे गोल ट (फल. VIII, 20-23, XXI, XXII; मिला. स्त. XVI), दाईं ओर भंग वाला म (फल. VIII, 34, XXI, XXII; मिला. स्त. XVI), और बाईं ओर फंदे वाला य (फल. VIII, 35, XXI, XXII; मिला. स्प. XVI) भी पूर्वकालीन तमिल अक्षरों की तरह हैं। और तीन अक्षरों, गोल उ (फल. VIII, 5, XXI), नुकीला ए (फल. VIII, 8, XXI) और अकेली गांठ वाले
360. ई. ऐ. XX, 292 ।
361. इं. ऐ. I, 229; ब., ए. सा. इं. पै, 49; हुल्श नहीं मानता, इं. ऐ. I, 2891
362. ए. ई. III, 67. 363. मिला. ऊपर 25, टिप्प. 270.
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