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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
अक्सर अक्षर की एक मात्र प्रतिनिधि बन जाती है (फल. VII, 34, VII, IX)।
___7. श-गुर्जर अभिलेखों (फल. VIII, 39, I) और नासिक के चालुक्य अभिलेखों303 में तो सर्वदा, पर वलभी के अभिलेखों में304 कभी-कभी इसमें एक अर्गला और दाईं ओर को एक खड़ी रेखा का जोड़ बनता है । उत्तर में भी ऐसा होता है । 305
8. स-घसीट कर लिखने से इस अक्षर के वामांग में एक शोशा जुड़ जाता है। यह दक्षिणी लिपियों में भी मिलता है (फल. VIII, 41, XI)। ___9. संयुक्ताक्षरों के अनेक घसीट रूप मिलते हैं जैसे (क) शुरू का ज जिसमें दाईं ओर का हुक मिल जाता है और अक्षर ण से मिलने लगता है (मिला. फल. V, 19, V, VII से भी); (ख) शुरू का न जो खासकर त, थ, ध, न (देखि. अनुमन्तव्यः में न्त, फल. VII, 42, V) से पहले एक आड़ी या झुकी लकीर होता है और देखने में त सा लगता है । 306 (ग) नीचे के क जैसे ष्क (फल. VII, 46, VIII) में बाई ओर को अक्सर एक फंदा बनता है (मिला. इं. ए. XI, 305); (घ) स्व में च (फल. VII, 41, VIII, IX) छठी शती से दाई ओर को खुला रहता है और इसके आधार पर ा का हुक होता है; (च) नीचे का ण--शुरू से ही इसके लिए सिर्फ एक फंदा बना देते हैं; (छ) नीचे का थ जो अन्य दक्षिणी लिपियों की भाँति (मिला. उदाहरणार्थ फल. VII, 45, XX) दाई ओर को खुले दुहरे भंग में परिणत हो जाता है (फल VII, 45, IV; फल. VIII, 49, I)।
आ. मध्य भारतीय लिपि मध्य भारतीय लिपि का पूर्ण विकसित रूप एरण के समुद्रगुप्त के अभिलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि के अभिलेख,307 शरभपुर के राजाओं के ताम्रपट्टों 308,
303. मिला. इं. ऐ. IX, 124 की प्रतिकृति से। 304. मिला. इं. ऐ. VI, 10 और प्रतिकृति XIV, 328 पर । 305. मिला. ज. रा. ए. बं. LXIV, 1, फल. 9 सं. 2 से । 306. इं. ऐ. VI, 110 और आगे 28, आ पर मेरे विचार देखिए। 307. फ्ली. गु. इं. (का. इं. ई. III) सं. 2, 3, फल. 2, A, B. 308, वही, सं. 40, 41, फल. 26, 27.
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