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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
1.
ई में दो बिंदियाँ अगल-बगल रखी हैं ।
नीचे एक र जैसा रूप है।
( मिला. बावर की प्रति के ई से ) जो दूसरी दो बिंदियों का प्रतीक है ( फल.
V, 4, I; VI, 4, IX)।
2.
च का चतुर्भुजी रूप ( फल. V, 15, 1; VI, 20, VIII, IX)।
3.
मूर्धन्य ड में मध्य में न्यूनकोण के स्थान पर एक फंदा है और अंत में एक कील ( फल. V, 22, I; VI, 27, VIII, IX)।
4.
दंत्य त एक फंदे वाले रूप से निकला है । इसका बाईं ओर का आधा अंग मिट चुका है और दाईं ओर के आधे में एक भंग बन गया है ( फल V, 25, I; VI, 30, VIII, IX) ।
5. दंत्य द का सिरा चिपटा हो गया है, पर इसका निचला हिस्सा इतना चौड़ा है कि इसकी शक्ल देवनागरी प सी दीखने लगती है ।
6. व के भंग के बाएं भाग का शिरोरेखा से संबंध हो जाने के कारण इसकी सूरत सी दीखने लगती है ( फल. V, 38, I, VI, 43, VIII, IX)।
7. चतुर्भुजाकार श की सूरत हूबहू नागरी स सी है ( फल V, 39, I; VI, 44, VIII, IX)।
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8. ॠ की कोणीय मात्रा ( फल. V, 43, I; VI, 43, VIII), ओ की मात्रा रेखा के ऊपर अलग खड़ी ( फल. V, 24, I; VI, 31, IX) है। द्रष्टव्य है, यह निस्संदेह गुप्त कालीन ओ की मात्रा से निकली है ( फल. IV, 34, IV) ।
9. संयुक्ताक्षर के प्रथम भाग के रूप में र दूसरे अक्षर के बाएं लगता है जैसा अफसड़ अभिलेख में होता है 1 271
प्राक्तर प्रलेखों में दूसरे अक्षर पश्चिमी गुप्त लिपि से कम भिन्न हैं । जो इनमें परिवर्तन मिलते दीखते भी हैं वे वहीं हैं जो न्यूनकोणीय लिपि में मिलते हैं सदा द्विपक्षीय य का प्रयोग और ण की आधार रेखा का दबना (दे. ऊपर 24, अ, 17 ), इ और ई की मात्राओं का क्रमशः बाएं और दाएं खिंचना ( ऊपर 24, आ, 2 ) और जिह्वामूलीयों का सरलीकरण ( फल. V, 47, I ) इस बात की ओर इशारा करता है कि सातवीं शती से पहले शारदा लिपि गुप्त लिपि से अलग नहीं हुई थी ।
271 देखि ऊपर 24, इ. 3.
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