________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारतीय पुरालिपि-शास्त्र दक्षिणी नागरी का पुरागत विभेद मिलता है। उसका पूर्ण विकसित रूप कौठेम् के ताम्रपट्टों में (फल. V, स्त. XVII) 239 है जो सन् 1009-10 में चालुक्य राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में खुदवाये गये हैं। 8-11 वीं शताब्दियों की दक्षिणी नागरी अपनी समकालीन उत्तरी भगिनी से मुख्य रूप से इस बारे में अलग है कि इसमें खड़ी लकीरों के नीचे दायें को झुकी दुमें नहीं हैं और इसके रूप कुछ अधिक अनम्य हैं। यह मराठा प्रदेश और कोंकण के शिलाहारों और यादवों के अनेक अभिलेखों और बेलगाँव के एक रट्ट राजा के अभिलेख240 में मिलती है। 13-16 वीं शताब्दियों में इसका सबसे नवीन विकास कन्नड प्रदेश के विनयनगर या विद्यानगर के राजाओं के अभिलेखों में मिलता है ।241 मराठा जिलों की बालबोध या देवनागरी में यह अब भी जीवित है। दक्षिणी भारत की नंदिनागरी इसी से निकली है जिसमें अभी तक हस्तलिखित पुस्तकें लिखी जाती हैं ।242
उत्तर और मध्य भारत में नागरी सबसे पहले महोदय के महाराज विनायकपाल के ताम्रपट्टों में मिलती है (फल. IV, स्त. XXIII ) 243 जो संभवतः सन् 794 ई. के हैं। इसमें कुछ प्राचीनता है और ख, ग और न के रूपों में विशिष्टता है। यह बाद के पूर्वी भारत के अभिलेखों में भी मिलती है। कन्नड़ प्रदेश से एक अभिलेख मिला है जो इस प्रलेख से पुराना है। इसे उत्तर भारत से गये एक ब्राह्मण ने खोदा है। (दे. ए. ई. 3, पृ. 1 तथा आगे) इसमें नागरी और न्यूनकोणीय रूपों का मेल है। इससे यही संभव प्रतीत होता है कि कम-से-कम 8वीं शती के शुरू से ही उत्तरी नागरी244इस्तेमाल में थी। अगली शती में उत्तरी नागरी के अभिलेखों की
239. इं. ऐ. XVI, पृ. 15 तथा आगे। __240. मिला. इ. ऐ. VII, 304 ; IX, 32; XIV, 141; XVII, 122, ज. बा. ब्रा. रा. ए. XIII, 1; XV, 386; ए. ई. III, 272, 300, 306 की प्रतिकृतियों से।
241. मिला. ए. ई. III, 38, 152; ब., ए. सा. इ. पै. फल. 30 और फल. 20 की वर्णमाला की प्रतिकृतियों से ।
242. ब., ए. सा. इं. पै. 52 (जहाँ नंदिनागरी को भूल से सिद्धमात्रिका से निकला बताया गया है) और फल. 21.
243. इं. ऐ. XV, 140. 244. देखि. इं. ऐ. XIII, 64 की प्रतिकृति ।
106
For Private and Personal Use Only