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भामिनी-बिलासे
टिप्पणी- जैसे जंगल में वनाग्नि लगनेपर मृग नष्ट हो जाते हैं, उन्मत्त हाथी वृक्षोंको तोड़ देता है और आँधी दीपकको बुझा देती है, ऐसे ही दुर्जनोंकी सङ्गति मनुष्यके आनन्द, शील और ज्ञानको नष्ट कर देती है । रूपक अलंकार है ॥ ३ ॥
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खलास्तु कुशलाः साधुहितप्रत्यूहकर्मणि । निपुणाः फणिनः प्राणानपहर्तुं निरागसाम् ||४॥
अर्थ — सज्जनोंके हित में विघ्न करनेमें दुर्जन बड़े हो कुशल होते हैं; क्योंकि सर्प भी तो निरपराध व्यक्तियोंके प्राण लेनेमें निपुण होते हैं ।
टिप्पणी- यहाँ खल उपमेय है, सर्प उपमान। दोनोंमें विनाशकारितारूप साधारण धर्मसे वस्तु- प्रतिवस्तु भाव प्रतीत होता है अतः प्रतिवस्तूपमा अलंकार है || ४ |
वदने विनिवेशिता भुजङ्गी पिशुनानां रसनामिषेण धात्रा । अनया कथमन्यथावलीढा नहि जीवन्ति जना मनागमन्त्राः ||५||
अर्थ - विधाताने पिशुन - जनों के मुखमें रसना ( जिह्वा ) के रूपमें सर्पिणी बैठा दी है । नहीं तो इसके द्वारा किंचिन्मात्र भी स्पर्श किये गये, मंत्र न जाननेवाले लोग जीवित क्यों नहीं रह पाते ।
टिप्पणी-सर्पिणी जिसे डस देती है यदि वह विषापहार मंत्र नहीं जानता तो निश्चय ही मर जायगा । ऐसे ही खल-जनोंकी जिह्वा जिसके विषयमें चल गई वह मंत्रज्ञ ( नीतिज्ञ ) नहीं है तो निश्चय ही नष्ट हो जायगा । यह अपहति अलंकार है; क्योंकि जिह्वाके जिह्वात्वधर्म का गोपन करके उसपर भुजंगीत्वका आरोप किया है ॥ ५ ॥
कृतं त्वयोन्नतं कृत्यमर्जितं चामलं यशः यावज्जीवं सखे तुभ्यं दास्यामो विपुलाशिषः ||६||
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