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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६९ अन्योक्तिविलासः दिशाओं में कुहरा सा छाया प्रतीत होता है । सुगन्धयुक्त वायु भी उसके शरीरको अग्निकी तरह झुलसा रही है । क्योंकि उसे तो आनन्द तभी आयेगा जबकि कोमल लाल-लाल आमके किसलयोंपर मंजरियोंका रस लेनेके लिये भौंरे गूंजने लगेंगे और वसन्त ऋतु आ जायगी । वसन्तके सिवा उसकी कुहू कुहू अन्यत्र कभी नहीं सुनाई देगी । भलेही दुनियाँमें सर्वत्र आनन्द छाया हो । खिले कमल या सुगन्धित वायु सभीको आनन्द देती है पर कोयलको तो वसन्तमें भौंरोंकी गुंजारसे ही आनन्द आयेगा । तुलना०--दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सिता तु मधुरैव । ___ तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो वाति यत्र संलग्नम् ॥ कोयलकी इस अन्योक्तिसे प्रतीत होता है कि प्रियजनके विरहमें सुन्दर वस्तुएं भी सन्तापदायक ही होती हैं। यहाँ पूर्वार्धमें उपमा अलंकार है और उत्तरार्धमें अप्रस्तुतप्रशंसा। अतः दोनोंकी संसृष्टि है । वसन्ततिलका छन्द है ॥९९॥ भिन्ना महागिरिशिलाः करजाग्रजाग्र दुद्दामशौर्यनिकरैः करटिभ्रमेण । दैवे पराचि करिणामरिणा तथापि कुत्रापि नापि खलु हा पिशितस्य लेशः ॥१०॥ अन्वय-करिणाम् , अरिणा, दैवे, पराचि, करटिभ्रमेण, करजाग्रजाग्रदुद्दामशौर्यनिकरैः, महागिरिशिलाः, भिन्नाः, तथापि, हा कुत्रापि, पिशितस्य, लेशः, न आपि, खलु । शब्दार्थ-करिणाम् = हाथियोंके । अरिणा = शत्रु ( सिंह ) ने। करटिभ्रमेण = गजेन्द्रके भ्रमसे । करजाग्र = नखोंके अग्रभागसे, जाग्रत् For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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