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अन्योक्तिविलासः
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इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। जबकि दूसरोंपर बरसानेके निमित्त भी, समुद्रसे केवल जलयाचना करनेवाला मेघ, सम्पूर्ण काला हो जाता है, तो अपने व्यक्तिगत स्वार्थके लिये धन-याचना करनेवालेका मुख ही म्लान हुआ तो इसमें आश्चर्यको कौनसी बात है । 'प्रतिगृह्णतः' पदसे स्पष्ट है कि दाता उसे स्वेच्छासे देता है और याचक स्वेच्छासे स्वीकार करता है । तब भी उसकी मुखाकृति अहसानके भारसे मलिन हो जाती है। यदि चोरी आदिसे लेता तब तो पूछना ही क्या था ?
इसमें पूर्वार्धगत सामान्य उक्तिका उत्तरार्धगत मेघकी विशेष उक्तिसे समर्थन किया गया है, अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है । लक्षण
सामान्यं वा विशेषण तदन्येन समर्थ्यते ।
ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥ (काव्य०) वसन्ततिलका छन्द है ॥९६॥ गुणों से ही महत्व बढ़ता है -
जनकः स्थाणुविशेषो जातिः काष्ठं भुजङ्गमैः सङ्गः । स्वगुणैरेव पटीरज यातोऽसि तथापि महिमानम् ॥१७॥
अन्वय-हे पटोरज ! जनकः, स्थाणुविशेषः, जातिः, काष्ठं, भुजङ्गमैः, सङ्गः, तथापि, स्वगुणैः, एव, महिमानं, यातः, असि ।
शब्दार्थ---पटीरज = हे चन्दन ! (तुम्हारी) जनकः = पिता। स्थाणुविशेषः = ( मलय, पर्वत होनेसे ) जड़ ही है। जातिः = कुल । काष्ठं = लकड़ी है। सङ्गः = साथ । भुजङ्गमैः = सर्पोका है । तथापि = तो भी। स्वगुणः एव = अपने सद्गुणोंसे ही। महिमानं = महत्त्वको । यातोऽसि = प्राप्त हुए हो।
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