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पण्डितराज जगन्नाथ है। यवनी-संसर्गके विषयमें इनके कई श्लोक बहुत प्रसिद्ध हैं।' किन्तु ये श्लोक इनके ग्रंथों या स्फुट रचनाओं में कहीं भी नहीं पाये जाते अतः कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि किसी यवनीसे इनका संपर्क था । रही भट्टोजि या अप्पय दीक्षित द्वारा म्लेच्छ कहकर इन्हें जातिसे बहिष्कृत करनेकी बात, सो तो कोई आश्चर्य नहीं। जातिवादके उस कट्टर युगमें, जबकि “न पठेद्यावनी भाषां न गच्छेज्जैनमन्दिरम्" जैसे निषेधवाक्य प्रचलित थे, पण्डितराजके अनुपम ऐश्वर्य और बुद्धि-वैभवसे जलते हुए महाराष्ट्र ब्राह्मणोंने निरन्तर मुगलदरबारके संपर्क में रहनेके कारण उन्हें म्लेच्छ कहकर बहिष्कृत कर दिया हो तो कोई असंभव नहीं ! स्वभाव और अन्तिम वय
पण्डितराज अत्यन्त स्वाभिमानी, निर्भीक और महान्से महान्के भी दोषोंका उद्घाटन कर देनेवाले व्यक्ति हैं। अपने पाण्डित्य और कवित्वके सामने वे किसीको कुछ नहीं समझते । वे स्पष्ट कहते हैं कि वाणियोंका आचार्य होनेकी क्षमता मेरे अतिरिक्त किसीमें है ही नहीं।२ रसगंगाधर में वे कहते हैं कि मैंने सारे उदाहरण नये स्वयं बनाकर रखे हैं; क्योंकि कस्तूरीको उत्पन्न करनेको १. न याचे गजालिं न वा वाजिराजि न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित् ।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तहस्ता लवङ्गो कुरङ्गीदृगङ्गीकरोतु ॥ यवनीनवनीतकोमलाङ्गी शयनीये यदि नीयते कदाचित् । अवनीतलमेव साधु मन्ये न वनी माघवनी विनोदहेतुः ॥ यवनी रमणी विपदः शमनी कमनीयतमा नवनीतसमा ।
उहि-अहि वचोऽमृतपूर्णमुखी स सुखी जगतोह यदङ्कगता ।। २. आमूलाद्रलसानोर्मलयवलयितादा च कूलात्पयोधेः
यावन्तः सन्ति काव्यप्रणयनपटवस्ते विशङ्कं वदन्तु ।
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