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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥३॥
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१ शतके उद्देशः१ ॥३॥
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गुणसिलक नामर्नु चैत्य हतुं, श्रेणिक राजा अने चेल्लणादेवी राणी हता. सू० ॥ ४ ॥
ते कालेणं ते ण समए ण समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवरगंघहत्थीए लोगुत्तमे लोगनाहे लोगप्पदीवे लोगपजोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए (धम्मदए) धम्मदेसए (धम्मनायए) धम्मसारहीए धम्मवरचाउरंतचक्कवही अप्पडिहयवरनाणदंस
णधरे वियहछउमे जिणे जाणए (तिपणे तारए) बुद्ध बोहए मुत्ते मोयए सम्वन्नू सम्बदरिसी सिवमयलमकयम-18 पणतमक्खयमब्वाबाहमपुणरावत्तय सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं ॥ सू०५॥
___ अर्थः-ते काले, ते समये श्रमण भगवन् महावीर आदिकर, तीर्थकर, स्वयं तत्चना जाता, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषोमां उत्तम कमळ समान, पुरुषोमा उत्तमगंधहम्ती समान, लोकोत्तम, लोकनाथ लोकमां प्रदीप समान, लोकमां प्रयोत करनारा, अभय देनार,
चक्षु देनार, मार्गने देनार, शरण देनार, धर्मने देनार, धर्मदेशक धर्मरूपरथना सारथी, धर्मने विषे उत्तम चतुरंग चक्रवर्ती समान, || अप्रतिहत ज्ञानना अने दशनना धारण करनार, छद्म, शठतारहित रागद्वेषना जीतनार, सकल तच्चना भणनार, बुद्ध तच्चोना | जाणनार, मुक्त, मोचक-मुकाबनार, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, एवा श्रमण भगवान् महावीर शिव, सर्वबाधा रहित, अचल, रोगरहित, अनंत | पदार्थ विषयक ज्ञानस्वरूप, अक्षय, व्यावावरहित, पुनरावृत्तिरहित, "सिद्धगति' एवा प्रशस्तनामवाळा स्थानने संप्रापवानी इच्छावाळा (विहरे छे) यावत् समवसरण सुधीचं वर्णन जाणवू ॥५॥
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