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ध्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४४॥
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जीवा णं भंते ! कंखामोहणि कम्मं करिसु?, हंता करिसु। भैत! किं देसेणं देसं करिसु?, एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियन्बो जाव वेमाणियाणं, एवं करेंति, एत्थवि दंडओ जाव वेमाणियागं, एवं करेस्संति,
१ शतके एस्थवि दंडओ जाव बेमाणियाण ॥ एवं चिए चिणिसु चिणति चिणिस्संति, उबचिए उवचिणि उवचिणिस्संति,
उद्देशः ३ उदीरेंसु उदीरेंति उदीरिस्संति, वैदिसु वेदंति वेदिस्संति, निजरेंसु निजरेंति निजरिस्संति, गाहा-कडचिया 8
॥४ ॥ है उवचिया उदीरिया वेदिया य निजिन्ना । आदितिए चउभेदा तियभेदा पच्छिमा तिन्नि ॥१७॥ (सू०२९) | [प्र०] हे भगवन् ! जीवोए कांक्षामोहनीय कर्म कर्यु ? [३०] हे गौतम! हा, क. [प्र०] हे भगवन् ! ते शुं देशथी देशे कयु ||
[उ.] हे गौतम ! सर्वथी सर्व कप छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. एज प्रमाणे करे छे अने करशे, ए बनेनो | अभिलाप पण यावत्-वैमानिको सुधी कहेवो. तया एज प्रमाणे चय, चय कर्यो, चय करे छे तथा चय करशे; उपचय, उपचय कों,
उपचय करे ले, उपचय करशे. उदीयं, उदीरे छे, उदीरशे, वेधू, वेदे छे, वेदशे, निर्जयु निर्जरे छे, अने निजरशे; ए बधा अभि| लापो कहेवा. गाथा-कृत, चित अने उपचितमा एक एकना चार मेद कहेवाना छे अर्थात् सामान्यक्रिया, पछी भूतकाळनी तथा भविष्यकाळनी क्रिया; अने पाछळना त्रण पदमां-उदीरित, वेदित, अने निजिर्णमा एक एक पदमा मात्र त्रण काळनीज किया कहेवानी छे. ॥२९॥ ___ 'जीवा णं भंते! कंखामोहणिजे कम्मं वेदेति ?, हंता वेदेति । कहनं भंते! जीवा कंखामोहणिजं कम्म वेदेति ?, गोयमा! तेहिं तेहि कारणेहि संकिया कंखिया वितिगिछिया भेयसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं
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