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२ शतके
व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३८॥
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| उदेशः १ ॥१३८॥
पछी ने कात्यायनगोत्रीय स्कंदक परिव्राजक, व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवंत महावीरनुं पूर्व प्रकारचें उदार यावत्-शोभाण्डे अत्यंत शोभायमान शरीर जोइ हर्ष पाम्यो, संतोष पाभ्यो, आनंदयुक्त चित्तवालो थयो, आनंद पाम्यो, प्रीतियुक्त मनवाळो थयो, परम सौ. नस्यने पाम्यो तथा हर्षे करीने प्रफुल्ल हृदयवाळो थइ ज्यां श्रमण भगवंत महावीर वीराज्या छे ते तरफ जइ, श्रमण भगवंत | महावीरने त्रणवार प्रदक्षीणा करी तेओनी पर्युपासना करे छे. ॥६॥
खंदयाति! समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चाय एवं वयासी-से नूणं तुमं वंदया! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंटेणं बेसालियसाचएणं इणमक्वेवं पुच्छिए-मागहा ! किं सते लोए अणते लोए? एवं तं जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए, से नूर्ण खंदया! अयम? समवे, हंता अस्थि, जेऽविय ते स्वंदया! अयमेयारूवे अन्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजिस्था-किं सअंते लोए अर्णते लोए तस्सविय णं अयम?-एवं खलु मए खंदया! चउबिहे लोए पन्नत्ते, तंजहा-दवओ खेत्तओ कालओ भावओ। दवओ णं एगे लोए सते १, खेत्तओ णं लोए असंखजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्वंभेणं असंखजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्ववेणं प०, अत्थि पुण सअंते २, कालओ गं लोए ण कयाविन आसीन कयाविन भवति न कयाविन भविस्सति भविंसु य भवति य भविस्सह य धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवहिए णिच्चे, णत्थि पुण से अंते ३, भावओणं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंध० रस. फासपजवा अणंता संठाणपजवा अणंता गरुयलहुयपजवा अणता अगरुयलहुयपजबा, नत्थि पुण से अंते ४, सेत्तं खंदगा! दवओ लोए
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