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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९३५) बहुपिच्छापरिस्रावी परिस्रावी कफोद्भवः ॥१३॥ और कफका भगंदर बहुत रंगोंवाला झिरताहै इसे परीस्त्रावी कहतेहैं ॥ १३॥
वातपित्तात्परिक्षेपी परिक्षिप्य गुदं गतिः॥
जायते परितस्तत्र प्राकारपरिखेव च ॥ १४ ॥ और वात पित्तसे उपजे रोग गुदाको प्राप्तहोकर किला और खाईकी समान चारों तरफ व्रण होजातेहैं ॥ १४ ॥
ऋजुर्वातकफादृज्व्या गुदो गत्या तु दीर्यते ॥ और वात कफसे कोमल फुनसी होतीहैं और सहज गुदा विदर्णि होजातीहै ॥ कफपित्ते तु पूर्वोत्थं दुर्नामाश्रित्य कुप्यतः॥१५॥
अर्शोमूले ततः शोफः कण्डूदाहादिमान्भवेत् ॥ स शीघ्रं पक्कभिन्नोऽस्य क्लेदयन्मूलमर्शसः॥१६॥
स्रवत्यजत्रं गतिभिरयमर्शो भगन्दरः॥ और कफ पित्त पूर्वोक्त बवासीरसे आश्रित होके कुपित होतेहैं ॥ १५ ॥ और बवासीरकी जडमें सोजा होजाताहै और ख ज होजातीहै और जल्दीही पकजाताहै और बवासीरसे विष्ठामें पीडा होतीहै ॥ १६ ॥ और जो गतियोंसे नित्य झिरे यह अर्शभगंदर कहाहै ॥
सर्वजः शम्बुकावतः शम्बुकावर्तसन्निभः ॥ १७॥
गतयो दारयन्त्यस्मिन्रुग्वेगैर्दारुणैर्गुदम् ॥ और संपूर्ण दोषोंसे संखलेकी गोलाईकी समान शंबुकावर्त होताहै ॥ १७ ॥ इस रोगमें दारुण रोगके वेगोंसे गति गुदाको विदर्णि करतीहै ॥
अस्थिलेशोऽभ्यवहृतो मांसवृद्धया यदा गुदम् ॥१८॥ क्षणोति तिर्यनिर्गच्छन्नुन्मार्ग क्षततो गतिः॥ स्यात्ततः पूयदीर्णायां मांसकोथेन तत्र च॥ १९॥ जायन्ते कृमयस्तस्य खादन्तः परितो गुदम् ॥
विदारयन्ति न चिरादुन्मार्गी क्षतजश्च सः॥२०॥ और अस्थियोंका लेश गलजाताहै और मांस बढके गुदाको प्राप्तहोजाताहै ॥ १८ ॥ और तिरछा जल निकलासाहुआ गुदमार्गको क्षीण करदेताहै और पीछे मांसकी कोथलीमें राद पडजाती है ॥ १९ ॥ और तिसमें गुदाके चारों तरफ खातीहुई कृमि पडजातीहैं और गुदाको विदारण करतीहैं और जलदी झिरने लगतीहै सो क्षतजभगंदर कहाहै ॥ २० ॥
तेषु रुग्दाहकण्ड्वादीन्विन्द्याद्रणनिषेधतः॥ व्रण होनेसे तिन्होंमें रोग दाह खाज आदिहोजातेहैं ।
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