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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(८८५) इदमेव भवेत्कार्य क ओष्ठे तु कफोत्तरे ॥७॥ पाठाक्षारमधुव्योषैर्हतास्ने प्रतिसारणम् ॥
धूमनावनगण्डूषाःप्रयोज्याश्च कफच्छिदः ॥८॥ और कफकी अधिकतावाले ओष्ठरोगमें यही कर्म करना योग्यहै ॥ ७ ॥ पाठा जवाखार शहद सूट मिरच पीपलसे प्रतिसारणकरे दूर हुए रक्तवाले ओष्टरोगमें हितहैं और कफको छेदनेवाले धूम नस्य गंडूषधारण प्रयुक्त करने योग्य हैं ॥ ८ ॥
स्विन्नं भिन्नं विमेदस्कं दहेन्मेदोजमग्निना ॥
प्रियकुरोध्रत्रिफलामाक्षिकैःप्रतिसारयेत् ॥ ९॥ मेदसे उपजे ओष्ठरोगको स्विन्न और भिन्न और मेदको दूरकर आग्निसे दग्धकरै और मालकांगनी लोध त्रिफला शहदसे प्रतिसारितकरे ॥ ९ ॥
सक्षौद्राघर्षणं तीक्ष्णा भिन्नशुद्ध जलार्बुदे ॥ - अवगाढेऽतिवृद्ध वा क्षारोऽग्निर्वा प्रतिक्रिया ॥ १०॥
भिन्न और शुद्धहुए जलार्बुदमें मिरच आदि तीक्ष्ण द्रव्योंमें शहद मिला घर्षण करना श्रेष्टहै और बढेहुये तथा अत्यन्त बढेहुये अर्बुदमें खार अथवा अग्निसे चिकित्सा करनी ॥ १० ॥
आमाद्यवस्थास्वलजी गण्डे शोफवदाचरेत् ॥ कची अलजी जो कपोलपे उपजे तिसको शोजाकी समान उपाचरितकरै ।। स्विन्नस्य शीतदन्तस्य पाली विलिखितां दहेत्॥१शातैलेन प्रतिसाऱ्याचसक्षौद्रघनसैन्धवैः ॥दाडिमत्वग्वरातार्यकान्ताजम्ब्वास्थिनागरैः॥१२॥कवलःक्षीरिणां क्वाथैरणुतैलंच नावनम् ॥
और स्विन्नरूप शीतदंतवालेकी पालीको लेखितकर दग्धकरै ॥ ११ ॥ तेलसे अथवा शहद नागरमोथा सेंधानमक अनारकी छाल त्रिफला रसोत श्वेतदूब जामनकी गुठली सूंठ इन्होंसे प्रतिसारण करै ॥ १२ ॥ दूधवाले वृक्षोंके काथोंसे कवलको धारणकरै अणुतेलका नस्य देवै ॥
दन्तहर्षे तथा भेदे सर्वा वातहरा क्रिया ॥ १३॥ · तिलयष्टीमधुशृतं क्षीरं गण्डूषधारणम् ॥
और दंतहर्षमें तथा दंतभेदमें वातको हरनेवाली सब क्रिया करनी योग्यहै ॥ १३ ॥तिल और मुलहटीसे पकायेहुए दूधसे कुल्लोंको धारण करवावै ।।
सस्नेहं दशमूलाम्बु गण्डूषः प्रचलहिजे ॥१४॥ तुत्थरोधकणाश्रेष्ठापत्तङ्गपटुघर्षणम् ॥ स्निग्धाः शील्या यथावस्थं नस्यान्नकवलादयः॥१५॥
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