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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८७९ ) तालुमध्ये निरुङमांसं संहतं तालुसंहतिः ॥३८॥ और तालुके मध्यमें पीडासे रहित और संहत मांस होनेसे तालुसंहति कहाताहै ॥ ३८॥
पद्माकृतिस्तालुमध्ये रक्ताच्छ्यथुरर्बुदम् ॥ तालुके मध्यमें कमलके आकारखाला शोजा दुष्टहुए रक्तसे होताहै वह अर्बुदरोग कहाताहै ॥
कच्छपः कच्छपाकारश्चिरवृद्धिः कफादरुक् ॥ ३९ ॥
कोलाभः श्लेष्ममेदोभ्यां पुप्पुटो नीरुजः स्थिरः॥ और दुष्टहुए कफसे कछुएके आकारवाला चिरकालमें बढ़नेवाला और पीडासे रहित शोजा उपजताहै, वह कच्छपरोग कहाहै ॥ ३९ ॥ दुष्टहुए कफ और मेदसे बरेके सदृश और पीडासे रहित और स्थिर शोजा उपजताहै, वह पुप्पुट रोग कहाताहै ॥
पित्तेन पाकः पाकाख्यः पूयास्रावी महारुजः॥४०॥ और दुष्टहुए पित्तसे रादको झिरानेवाला और अत्यंत पीडासे संयुक्त ऐसा तालुकापाक होताहै। वह पाकरोग कहाताहै ॥ ४०॥
वातपित्तज्वरायासैस्तालुशोषस्तदाह्वयः॥ वात पित्त ज्वर परिश्रमसे तालुके शोषमें तालुशोषरोग उपजताहै ॥
जिह्वाप्रबन्धजाः कण्ठे दारुणा मार्गरोधिनः॥४१॥
मांसांकुराः शीघ्रचया रोहिणी शीघ्रकारिणी॥ .. और कंटमें जिह्वाके प्रबंधसे उपजे दारुण और मार्गको रोकनेवाले ॥ ४१ ॥ मांसके अंकुर उपजतेहैं यह शीघ्र संचयवाला और शीन कर्मको करनेवाला रोहिणी रोग फहाताहै ॥
कण्ठास्यशोषकृद्वातात्सा हनुश्रोत्ररुकरी ॥४२॥ और वायुसे यह कंठको और मुखको शोषताहै और ठोडीमें तथा कानों में शूलको करता है ॥४२॥
पित्ताज्ज्वरोषातृण्मोहकण्ठधूमायनान्विता ॥
क्षिप्रजा क्षिप्रपाकार्तिरागिणी स्पर्शनासहा ॥४३॥ पित्तसे ज्वर संताप तृषा मोह कंठमें धूएंका आना इन्होंसे संयुक्त और तत्काल उपजनेवाला और तत्काल पाक शूल रागसे संयुक्त और स्पर्शको नहीं सहनेवाला रोहिणी रोग होताहै ।। ४३ ॥
कफेन पिच्छिला पाण्डुरसृजा स्फोटकाचिता ॥
तप्ताङ्गारनिभा कर्णरुकरी पित्तजाकृतिः॥४४॥ कफसे पिच्छिलरूप और पांडु रोहिणी होतीहै और रक्तसे फोडोंसे व्याप्त और तप्तहुए अंगारके समान वर्ण तथा कर्णशूलको करनेवाली और पित्तकी रोहिणीके समान आकृतिवाली रोहिणी होतीहै ॥ ४४॥
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