________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
दन्तमासे मलैः सात्रैर्बाह्यान्तः श्वयथुर्गुरुः ॥ २४॥ सरुग्दाहः स्रवेद्भिन्नः प्रयात्रं दन्तविद्रधिः ॥
(८७७ )
और दांतों के मांसों के भीतर और बाहिर रक्तसहित बात आदि दोषोंसे भारी शोजा उपजै ॥ २४ ॥ शूल और दाहसे संयुक्तहो और भिन्न होके राद और लोहूको झिरावै यह दंतविद्रधी कहता है ॥ श्वयथुर्दन्तमूलेषु रुजावान्पित्तरक्तजः ॥ २५ ॥
लालाखावीस सुषिरो दन्तमांसप्रशातनः ॥
और दंतोंके मूलों में पीडासे संयुक्त पित्त और रक्त से उपजा शोजाहो || २५ || और रालको झिराताहो यह सुषिररोग जानना यह दंतके मांसको काटता है || ससन्निपातज्वरवान्स पूयरुधिरस्रुतिः ॥ २६ ॥ महासुषिर इत्युक्तो विशीर्णद्विजबन्धनः ॥
और सन्निपातज्वरसे संयुक्त राद और रक्त के स्रावसे युक्त ॥ २६ ॥ और दातों के बंधनको ढीला करनेवाला महासुषिररोग कहा है ||
दन्तान्ते कीलवच्छोको हनुकर्णरुजाकरः ॥ २७ ॥ प्रतिहन्त्यभ्यवहृतिं श्लेश्मणा सोऽधिमांसकः ॥
और दांतोंके अंतमें कीलाके सदृश उपजा शोजा ठोडी और कानमें पीडा को करताहुआ||२७| भोजनके करने को बंध करता है, वह अधिमास रोग कहा है, यह कफकरके उपजता है || घृष्टेषु दन्तमांसेषु संरम्भो जायते महान् ॥ २८ ॥ यस्मिंश्चलन्ति दन्ताश्च स विदर्भोऽभिघातजः ॥
और दतौन आदिसे घिसे दांतके मांसों में महान् संरंभ उपजता है ॥ २८ ॥। जिसके होनेमें दंत हिलते हैं वह अभिघात से उपजनेवाला विदर्भरोग कहाता है ||
दन्तमांसाश्रितान्रोगान्यः साध्यानप्युपेक्षते ॥ २९ ॥ अन्तस्तस्याः स्ववन्दोषः सूक्ष्मां सञ्जनयेद्गतिम् ॥ पूयं मुहुः सा स्रवति त्वङ्मांसास्थिप्रभेदिनी ॥ ३० ॥ ताः पुनः पञ्च विज्ञेया लक्षणैः स्वैर्यथोदितैः ॥
For Private and Personal Use Only
और जो मनुष्य दंतके मांसों में आश्रितहुए साध्यरोगोंको नहीं चिकित्सित करता है ।। २९ ॥ तब तिन दंतों के मांस के भीतर झिरताहुआ दोष सूक्ष्मगतिको उपजाता है वह गति बारंबार रादको झिराती है और त्वचा मांस हड्डीको काटती है ॥ ३० ॥ वे गति अपने अपने यथायोग्य कहे हुए लक्षणोंकर के पांच प्रकारकी होती हैं |