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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
लाक्षाकरञ्जमरिचवेल्लहिङ्गुकणागुडैः ॥ २१ ॥ अविमूत्रद्रुतैर्नस्यं कारयेद्रमने कृते ॥
और लाख करंजुआ मिरच वायविडंग हींग पीपल गुड || २१ || इन्होंको भडके मूत्रमें महीन
पीस नस्यको करावै परन्तु वमन कराके पीछे नस्य देना योग्य है |
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(८७३)
शिशुसिंहीनिकुम्भाना बीजैः सव्योपसैन्धवैः ॥ २२॥ सवेलसुरसैस्तैलं नावनं परमं हितम् ॥
और सहजना कटेहली जमालगोटा इन्होंके बीज और सूंठ मिरच पीपल सेंधानमक ॥ २२ ॥ वायविडंग तुलसी इन्हों करके सिद्धकिया तेल उत्तम नस्य ॥
पूयरक्ते नवे कुर्य्याद्रक्तपीनसवत्क्रियाम् ॥ २३ ॥
यह पूतिनाश और अपीनसरोग में हित है और नवीन पूयरक्तरोगमें रक्त के पीनसकी तरह क्रियाको करै ॥ २३ ॥
अतिप्रवृद्धे नाडीवद्दग्धेष्वर्शोऽर्बुदेषु च ॥
निकुम्भकुम्भसिन्धूत्थमनोह्वालकणाग्निकैः ॥ २४ ॥ कल्कितैर्धृतमध्वक्तां घ्राणे वर्त्ति प्रवेशयेत् ॥ शिग्नादि नावनं चात्र पूतिनासोऽपि तं भजेत् ॥ २५ ॥
और अत्यन्त बढे हुए पूयरक्तरोगमें नाडि व्रणकी तरह चिकित्साको करे और जमालगोटाकी जड निशोत सेंधानमक मनशिल हरताल पीपल चीता ॥ २४ ॥ इन्होंके कल्कोंकर के घृत और शहदसे बनाई हुई तो नासिका में प्रविकरें और प्रतिनासरोग में कहा हुआ सहजना आदि उत्तम नस्य है तिसको भी सेवै ॥ २५ ॥
इति वेरीनिवासिवैद्य पांडेतरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषाटीकायामुत्तरस्थाने विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
एकविंशोऽध्यायः ।
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अथातो मुखरोगविज्ञानमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर मुखरोगविज्ञाननामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । मात्स्य माहिषवाराहपिशितामकमूलकम् ॥ माषसूपदधिक्षीरसुक्तेक्षरसफाणितम् ॥ १ ॥ अवाक्छय्यां च भजतो द्विषतो दन्तधावनम्॥ धूमच्छर्दनगण्डूषानुचितं च शिराव्यधम्॥२॥ क्रुद्धाः श्लेष्मोल्वणा दोषाः कुर्वन्त्यन्तर्मुखे गदान् ॥