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अष्टाङ्गहृदये
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नासिकाक्लेदसंशोषशुद्धिरोधकरो मुहुः ॥ १९ ॥ पूयोपमासिता रक्तग्रथिता श्लेष्मसंस्रुतिः ॥ मूर्च्छन्ति चात्र कृमयो दीर्घस्त्रिग्धसिताणवः ॥ १२ ॥
नहीं चिकित्सित किये सब प्रकार के प्रतिश्याय दुष्टताको प्राप्त होते हैं ॥ ९ ॥ यथोक्त उपद्रवोंकी अधिकता से सब इन्द्रियोंको खेदित करनेवाला और मंदाग्नि ज्वर श्वास खांसी छातीपीडा पसलीपी डासे संयुक्त ॥ १० ॥ और कारण के बिनाही बहुत प्रकारसे कुपित होता है मुखमें दुर्गंधि और शोजाको करता है और नासिका में क्लेद शोष शुद्धि रोधको वारंवार करता है ॥ ११ ॥ और रादके समान और काली रक्तकी गांठ और कफका झिरना ये उपजते हैं और यहां लंबे और चिकने और सफेद और सूक्ष्म कोडे मूर्च्छित होते हैं ॥ १२ ॥
पक्कंलिङ्गानि तेष्वङ्गलाघवं क्षवथोः शमः ॥
श्लेष्मा सचिक्कणः पीतो ज्ञानं च रसगन्धयोः ॥ १३ ॥ अगकां हलकापन और छोकोंकीशांति चिकनेपनेसे संयुक्त पीला कफ, रसका और गंधका ज्ञान ये सब पके हुए प्रतिश्यायके लक्षणहैं ॥ १३ ॥
तीक्ष्णत्राणोपयोगार्क रश्मिसूत्रतृणादिभिः ॥ वातकोपिभिरन्यैर्वानासिकातरुणास्थिनि ॥ १४ ॥ विघट्टितेऽनिलः क्रुद्धो रुद्धः शृङ्गाटकं व्रजेत् ॥ निवृत्तः कुरुतेऽत्यथं क्षवथुं स भृशंक्षवः ॥ १५ ॥
तीक्ष्ण मिरच आदिका उपयोग और सूर्यकी किरण और सूत्र तृण इन आदिकरके अथवा वातको कोपित करनेवाले द्रव्यों करके नासिका के तरुण अस्थि ॥ १४ ॥ विघट्टित होजावे तहां कुपित हुआ और रुका हुआ वायु शृंगाटक स्थानको गमन करता है, पीछे निवृत्त होता हुआ वायु अतिशयकरके छींकों को उपजाता है, तिसको भ्रंशंक्षवरोग कहते हैं ॥ १५ ॥ शोषयन्नासिकास्रोतः कफञ्च कुरुतेऽनिलः॥ शूक पूर्णाभनासात्वं कृच्छ्रादुच्छ्रसनं ततः ॥ १६ ॥ स्मृतोऽसौ नासिकाशोषो
नासिका के स्त्रोतको और कफको शोषितकरता हुआ वायु काटोंसे भूरित कियेकी समान करताह पीछे कष्टसे उग्रश्वासको उपजाता है || १६ || यह नासिकाशोष कहा है ||
नासानाहे तु जायते ॥ नद्वत्वमिव नासायाः श्लेष्मरुद्धेन वायुना ॥ १७ ॥ निःश्वासोच्छ्राससंरोधात्स्रोतसी संवृते इव ॥
और नासानाहरोग में नासिकाको आपूरकी तरह उपजाता है और कफ से रुके हुए वायुसे॥ १७ ॥ निःश्वास उपजता है, और श्वासके संरोधसे आच्छादित हुए की समान नासिका के दोनों स्रोत हो जाते हैं ||
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