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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४२) अष्टाङ्गहृदयेचमेली शिरस धायके फूल मेढासिंगाके फूल वैडूर्य्यमाण मोतीको बकरी के दूध के संग पीसै, पीछे सूक्ष्मकिये तांबेको इस करके लेपितकरै, पीछे सात दिनोंतक फिर बकरीके दूधके संग पीस ॥ ३१ ॥ छायामें सुखायाहुआ यह पिंडांजन वेधित किये नेत्रमें हितहै और प्रसादको उपजाता है और दृष्टि के बलको करताहै ॥ स्रोतोजविद्रुमशिलाम्बुधिफेनतीक्ष्णैरस्यैवतुल्यमुदितं गुणकल्पनाभिः ॥३२॥ और सुरमा मूंगा मनशिल समुद्रझाग काला शिरस इन्होंको बकरीके दूधमें पीसकरके बनाया पिंडांजन पूर्वोक्त गुणोंको करताहै ॥ ३२ ॥ इति श्रीवेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया मुत्तरस्थाने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ पञ्चदशोऽध्यायः। अथातः सर्वाक्षिरोगविज्ञानमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर सर्वाक्षिरोगविज्ञानीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। वातेन नेत्रेभिष्यन्दे नासानाहोऽल्पशोफता॥शंखाक्षिभूललाटस्य तोदस्फुरणभेदनम् ॥१॥ शुष्काल्पादूषिकाशीतमच्छमश्रुचलारुजः॥ निमेषोन्मेषणंकृच्छ्राजन्तूनामिव सर्पणम्॥२॥ अक्ष्याध्मातमिवाभाति सूक्ष्मैः शल्यौरवाचितम् ॥ वायुकरके अभिस्यंदितहुये नेत्रमें नासिकापै शोजा और कनपटी नेत्र भुकुटी मस्तक इन्होंमें चभका फुरना भेदन ये उपजतेहैं ॥ १ ॥ सूखी और थोडी ढीठ शीतल और पतली आंशु और चलायमान पीडा और नेत्रों का कष्टकरके खोलना और मींचना और कीडोंकी तरह सर्पणा ॥ २ ॥ अफारेकी तरह प्रकाशितहुये और सूक्ष्म शल्योंकरके व्याप्तहुएकी समान नेत्र होजातेहैं ।। स्निग्धोष्णैश्वोपशमनं सोऽभिष्यन्द उपेक्षितः॥३॥ अधिमन्थो भवेत्तत्र कर्णयोनंदनं भ्रमः॥ अरण्येव च मथ्यन्ते ललाटाक्षिभ्रवादयः ॥ ४ ॥ स्निग्ध और गरम पदार्थोंसे शांति होतीहै और नहीं चिकित्सित किया बाताभिष्यंद॥३॥ अधिमंथ होजाताहै तहां कानोमें शब्द और भ्रम और अरणीकी समान मस्तक नेत्र भ्रुकुटी आदि मथित होतेहैं ॥ ४ ॥ हताधिमन्थः सोपि स्यात्प्रमादात्तेन वेदनाः॥ अनेकरूपा जायन्ते व्रणो दृष्टौ च दृष्टिहा ॥५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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