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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ८३९ )
छत्राभा नैकवर्णा च छत्रकी नाम नीलिका ॥ ७ ॥ और छत्रके समान कांतिवाली और अनेकवर्णोंवाली ऐसी छत्रकी नाम नीलिका होती है ॥७॥ न विध्येदशिराहणां न दृक्पीनसकासिनाम् ॥ नाजीणभीरुवमितशिरः कर्णाक्षिशूलिनाम् ॥ ८ ॥
और नहीं है शिराव योग्य जिन्होंके ऐसे मनुष्योंके और दृष्टि पीनस खांसी इन रोगवालों के और अजीर्णवाले डरपोक वमन कियेहुये और शिर कान नेत्रमें शूलवालोंके लिंगनाशको बींधे नहीं ॥ अथ साधारणे काले शुद्धसम्भोजितात्मनः॥ देशे प्रकाशे पूर्वाह्णे भिषग्जानूच्चपीठगः ॥ ९ ॥ यन्त्रितस्योपविष्टस्य स्विन्नाक्षस्य मुखानिलैः ॥ अङ्गुष्ठमृदिते नेत्रे दृष्टों दृष्ट्ोतं मलम् ॥ १० ॥ स्वनासां प्रेक्षमाणस्य निष्कम्पं मूर्ध्नि धारिते ॥ कृष्णादर्धागुलं मुक्त्वा तदर्द्धार्द्धमपाङ्गतः॥ ११ ॥ तर्जनीमध्य मांगुष्ठैः शलाकां निश्चलंधृताम् ॥ दैवच्छिद्रं नयेत्पार्श्वदूर्ध्वमामन्थयन्निव ॥१२॥ सव्यं दक्षिणहस्तेन नेत्रं सव्येन चेतरत् ॥
पीछे साधारण कालमें शुद्धहुए और भोजन कियेहुए मनुष्यको पूर्वाह्नकालमें और प्रकाशित देशमें बैठा जानु अर्थात् गोडाकी सदृश ऊंचे आसनपै स्थितहुआ वैद्य ॥ ९ ॥ यंत्रित किये और अच्छी तरह बैठे हुयेके और मुखके पत्रनोंसे स्वेदितकिये नेत्रोंवालेके अंगूठेसे मलितहुये नेत्र होजावे तत्र दृष्टिमें उद्द्भुतहुये भैलको देखकर || १० || और अपनी नासिकाको देखनेवाले तिस मनुष्य के कंपसे वर्जित शिरको धारित करके और कृष्णभागसे आधे अंगुल जगहको छोड़ और कटाक्ष देशसे चौथाई अंगुलको छोड ॥ ११ ॥ तर्जनी अंगुली मध्यमा अंगुली अंगूठा इन्होंकरके निश्चल रूप धारणकरी सलाईको दैवकृत छिद्र के पार्श्व में ऊपरको आलोडित कर्ताकी तरह प्राप्तकरै ॥ १२ ॥ बाएं नेत्रको दाहिने हाथ से और दाहिने नेत्रको बाएं हाथ से बांधे ॥
विध्येत्सुविद्धे शब्दः स्यादरुक्चाम्बुलवस्रुतिः ॥ १३ ॥ सान्त्वयन्नातुरं चानु नेत्रं स्तन्येन सेचयेत् ॥ शलाकायास्ततोऽयेण निर्लिखेनेत्रमण्डलम् ॥ १४ ॥ अबाधमानः शनकैर्नासांप्रतिनु दस्ततः ॥ उत्सिञ्चनाञ्चापहरे दृष्टिमण्डलगं कफम् ॥१५॥ स्थिरे दोषे चले वापि स्वेदयेदक्षि बाह्यतः ॥ अथ दृष्टेषु रूपेषु शलाका माहरेच्छनैः ॥ १६ ॥ घृताप्लुतं पिचुं दत्त्वा बद्धाक्षि शाययेत्ततः ॥ विद्धादन्येन पार्श्वेन तमुत्तानं द्वयोर्व्यधे ॥१७॥ निवातेशयनेऽभ्यक्तशिरःपादं हिते रतम्॥ क्षवथुं कासमुद्धारं ष्ठीवनं पानमम्भ
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