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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८३७) चिन्ताभिघातभीशोकरौक्ष्यात्सोत्कटकासनात्॥ विरेकनस्यवमनपुटपाकादिविभ्रमात् ॥ ९४ ॥ विदग्धाहारवमनारक्षुत्तृष्णादिविधारणात् ॥
अक्षिरोगावसानाच्च पश्येत्तिमिररोगवत् ॥ ९५॥ चिंता अभिघात भय शोक रूखापन उत्कटआसन जुलाब नस्य वमन पुटपाक इन आदिके विभ्रमसे ॥ ९४ ॥ विदग्ध भोजनके वमनसे भूख और तृषा आदिके वेगको धारनेसे और नेत्र रोगके अवसानसे मनुष्य तिमिररोगकी समान देखताहै ॥ ९५ ॥
यथास्वं तत्र युंजीत दोषादीन्वीक्ष्य भेषजम् ॥ तहां यथायोग्य दोष आदिको देख औषध युक्त करै । सूर्योपरागानलविद्युदादिविलोकनेनोपहतेक्षणस्य ॥ सन्तर्पणं स्निग्धहिमादि कार्य तथांजनं हेमघृतेन घृष्टम् ॥ ९६ ॥
और सूर्यग्रहण अग्नि बिजलीके देखनेसे उपहत नेत्रोंवाले मनुष्यके स्निग्ध और शीतल आदि संतर्पण करना योग्यहै, और घृतमें घिसाहुआ सोनेका अंजन करना हितहै ॥ ९६ ॥
चक्षुरक्षाया सर्वकालं मनुष्यैर्यत्नः कर्त्तव्यो जीविते यावदिच्छा ॥ व्यर्थों लोकोऽयं तुल्यरात्रिन्दिवानां पुंसामन्धानांविद्यमानेऽपि वित्ते ॥ ९७॥ मनुष्योंको सदाही जबतक जीवनेकी इच्छाहो तबतक नेत्रोंकी रक्षामें यत्न करना योग्यहै, क्योंक सुल्य रात्रि और दिनको देखनेवाले अंधे मनुष्योंके धनके होने भी यह लोक व्यर्थ कहाहै।। ९७|| त्रिफला रुधिरतिर्विशुद्धिर्मनसो निर्वृतिरञ्जनश्च नस्यम् ॥
शकुनाशनतासपादपूजा घृतपानञ्च सदैव नेत्ररक्षा ॥ ९८॥ त्रिफला रक्तका निकालना जुलाब आदि शुद्धि मनकी निवृत्ति अंजन नस्य और पक्षियोंका भोजन और जूती आदिके पहरनेसे पैरोंकी पूजा घृतका पीना ये सबकालमें नेत्रकी रक्षा कहीहै ।
अहितादशनात्सदानिवृत्तिभृशभास्वच्चलसूक्ष्मवीक्षणाच्च ॥ मुनिना निमिनोपदिष्टमेतत्परमं रक्षणमीक्षणस्य पुंसाम्॥९९॥ अहितं भोजनसे और अत्यंत प्रकाशित और चलायमान और सूक्ष्म देखनेसे सदा निवृत्ति करना, यह मनुष्योंके नेत्रोंकी रक्षा निमिनामवाले मुनिने कहीहै ॥ ९९ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीका
यामुत्तरस्थाने त्रयोदशोध्यायः ॥ १३ ॥
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