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(८३२)
अष्टाङ्गहृदयेऔर अंजन करनेमें भंगेरेकी अथवा सूकरकी वसा श्रेष्ठहै ॥ ५५ ॥ अथवा गीध सर्प मुरगा इन्होंकी अलग २ वसामें मुलहटी मिला अंजन करना श्रेष्टहै ॥
प्रत्यञ्जने च स्रोतोज रसक्षीरघृते क्रमाद् ॥ ५६ ॥
निषिक्तं पूर्ववद्योज्यं तिमिरघ्नमनुत्तमम् ॥ और प्रत्यंजनमें मांसका रस दूध घृतमें क्रमसे सेचितकिया सुरमा हितहै ॥ ५६ ॥ यह अंजन उत्तमहै और तिमिररोगको नाशताहै ॥ .
न चेदेवं शमं याति ततस्तर्पणमाचरेत् ॥ ५७॥ जो ऐसे करनेसे यह रोग शांतिको प्राप्त नहीं होवे तो पीछे तर्पणको करें ॥ १७॥ शताह्वाकुष्ठनलदकाकोलीद्वययष्टिभिः॥प्रपौण्डरीकसरलपिप्पलीदेवदारुभिः ॥५८ ॥ सर्पिरष्टगुणक्षीरं पक्कं तर्पणमुत्तमम् ॥ सौंफ कूट वालछड काकोली क्षीरकाकोली मुलहटी पौंडा सरलवृक्ष पीपल इन्होंके कल्कोंकरके ॥ ५८ ॥ आठगुने दूधसे संयुक्तकर पकाया घृत उत्तम तर्पणहै ॥
मेदसस्तद्वदेणेयादुग्धसिद्धात्खजाहतात् ॥ ५९ ॥
उद्धृतं साधितं तेजो मधुकोशीरचन्दनः।। और तैसेही एणसंज्ञक मृगके मेदको दूधमें सिद्धकर और दंडसे मथितार ॥ ५५ ॥ तिसमें निकासे घृतको मुलहटी खस चंदनके संग पकावै यह उत्तम तर्पणहै ।। ___ श्वाविच्छल्यकगोधानां दक्षतित्तिरिवर्हिणाम् ॥ ६॥
पृथक्पृथगनेनैव विधिना कल्पयेद्वसाम्॥ और शेह खरगोस गोधा मुरगा तीतर मोरके ॥ ६० ॥ पृथक् २ वसाको इसी विधिस काल्पतकरै॥
प्रसादनं स्नेहनं च पुटपाकं प्रयोजयेत् ॥ ६१॥
वातपीनसवञ्चात्र निरूहं सानुवासनम् ॥ और प्रसादन स्नेहन पुटपाककोभी प्रयुक्तकरै ॥ ६१ ॥ वातज पीनसको तरह यहां अनुवासन सहित निरूहको प्रयुक्तकरै ॥
पित्तजे तिमिरे सर्पिर्जीवनीयफलत्रयैः॥ ६२॥ विपाचितं पाययित्वा स्निग्धस्य व्यधयेच्छिराम् ॥
शर्करैलात्रिवृच्चूर्णैर्मधुयुक्तैविरेचयेत् ॥६३ ॥ और पित्तसे उपजे तिमिर रोगमें जीवनीयगणके औषधोंमें और त्रिफलामें ॥ ६२॥ पकाये घृतका पान कराके पीछे स्निग्ध हुये तिस मनुष्यकी शिराको वींधे, पीछे खांड त्रिफला निशोतके चूर्गों में शहद मिला भक्षण कराके विरोचित करावै ॥ ६३ ॥
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