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(८३०)
अष्टाङ्गहृदयेदूधके कलशेमें मरेहुये काले सर्पको और चार वीछुओंको २१ दिनोंतक स्थापितकर पीछे क्लेदितकर मंथितकरै ॥ ३९ ॥ तिसमें जो नौनी घृत निकसे तिससे मुरगेको पुष्ट करै, तिस मुरगेकी वीठके अंजनसे निश्चय मनुष्य देखने लग जाताहे ॥ ४० ॥
कृष्णसर्पवसा शंखः कतकात्फलमंजनम् ॥
रसक्रियेयमचिरादन्धानां दर्शनप्रदा ॥४१॥ काले सर्पकी वसा शंख निर्मलीफल सुरमा यह रसक्रिया शीघ्रही अंधोंको देखनेकी सामर्थ्य देतीहै ॥ ४१ ॥
मरिचानि दशार्द्धपिचुस्ताप्यात्तुस्थाईपलं पिचुर्यष्टयाः॥ क्षीरार्द्धदग्धमंजनमप्रतिसाराख्यमुत्तमं तिमिरे ॥४२॥ मिरच १० और सोनामाखी आधा तोला और नीलाथोथा २ तोले और मुलहटी १ तोला ये सब आधे दूधमें संयुक्तकिये और पीछे दग्धकिये जाथै यह प्रतिसाराख्न अंजनहै यह तिमिररोगमें उत्तमहै ॥ ४२ ॥
अक्षबीजमारचामलकत्वक्तुत्थयष्टिमधुकैलापेष्टैः॥ छाययैव गुटिकाः परिशुष्का नाशयन्ति तिमिराण्यचिरेण ॥४३॥ बहेडेकी गिरी मिरच आंवलाकी छाल नीलाथोथा मुलहटी इन्होंको पानीमें पीस गोलियां बना और छायामें सुखाचे ये शीघ्रही तिमिररोगको नाशतीहैं ।। ४३ ॥
मरिचामलकजलोद्भवतुत्थाञ्जनताप्यधातुभिः क्रमवृद्धैः ।। षण्माक्षिक इति योगस्तिमिरामक्लेदकाचकण्डूहन्ता ॥ ४४ ॥ मिरच आंवला कमल नीलाथोथा सोनामाखी ये सब उत्तरोत्तर क्रम वृद्धिसे लेवे और छठाभाग शहद ले* यह षण्माक्षिकयोग तिमिर अर्म क्लेद काच खाजको हरताहै ॥ ४४ ॥
रत्नानि रूप्यं स्फटिकं सुवर्णं स्रोतोऽञ्जनं ताम्रमयं सशंखम्॥ कुचन्दनं लोहितगैरिकं च चूर्णाञ्जनं सर्वगामयन्नम् ॥४५॥ हीरा आदि सब रतन चांदी स्फटिक सोना सुरमा तांबा लोहा शंख पीतचंदन लाल गेरूका चूर्ण बनावै, यह चूर्णाजन सब प्रकारके नेत्र रोगोंको नाशताहै ॥ ४५ ॥
तिलतैलमक्षतैलं भंगस्वरसोऽसमाच्च नियूहः॥
आयसपात्रविपक्कं करोति दृष्टेबलं नस्यम् ॥ ४६॥ तिलोंका तेल बहेडाका तेल भंगरेका स्वरस इनको, लोहेके पात्रमें क्वाथ बना और पकाय नस्य लेवै यह नस्यकर्म दृष्टि के बलको करताहै ॥ ४६ ॥
दोषानुरोधेन च नैकशस्तं स्नेहास्रविस्रावणरेकनस्यैः ॥ उपाचरेदञ्जनमूर्द्धबस्तिवस्तिक्रियातर्पणलेपसेकैः ॥ ४७ ॥
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