________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८२७) सघृतं वा वराकाथं शीलयत्तिमिरामयी ॥ १७ ॥
अपूपसूपसक्तून्वा त्रिफलाचूर्णसंयुतान् ॥ अथवा घृतसे संयुक्तकर त्रिफलाके काथको अभ्याससे पीवै ॥ १७ ॥ अथवा त्रिफलाके चूर्णसे संयुक्तकिये मालपुए और दाल और सत्तूका अभ्यासकरै ॥
पायसं वा वरायुक्तं शीतं समधुशर्करम् ॥१८॥ प्रातर्भुक्तस्य वा पूर्वमद्यात्पथ्यां पृथक्पृथक् ॥
मृद्वीकां शर्कराक्षौद्रैः सततं तिमिरातुरः॥ १९ ॥ अथवा त्रिफलेसे युक्त शीतल, शहद तथा खांडसे संयुक्त दूधको खीरको ॥ १८ ॥ प्रभातमें खावै, अथवा भोजन करनेसे पहिले हरहेको तथा मुनक्का दाखको पृथकू २ खांड और शहदसे संयुक्तकर निरंतर तिमिररोगी खावै ॥ १९॥
स्रोतोजांशाश्चतुःषष्टिं ताम्रायोरूप्यकाञ्चनैः॥युक्तान्प्रत्येकमेकांशैरन्धमूषोदरस्थितान्॥२०॥ध्मापयित्वासमावृत्तं ततस्तच निषेचयेत् ॥ रसस्कन्धकषायेषु सप्तकृत्वःपृथक्पृथक्॥२१॥ वैदूर्यमुक्ताशंखानां त्रिभिर्भागैर्युतं ततः ॥ चूर्णाजनं प्रयुजीत तत्सर्वतिमिरापहम् ॥ २२ ॥ अच्छा सुरमा ६४ भाग, और तांबा लोहा चांदी सोना ये एक एक भाग इन सबोंको मिलाके अंधमूषायंत्रके पेटमें स्थापितकर॥२०॥पीछे अग्निसे दग्धकर अच्छीतरह आवर्तितकिये शिलापै पीस पीछे मधुरादिगणके काथों में सेचितकरै,ऐसे पृथक् पृथक् सातवार कर॥२१॥पीछे वैडूर्य मोती शंखके तीन भागोंसे संयुक्तकर चूर्णाजन बना प्रयुक्तकरै, यह सब प्रकारके तिमिररोगको नाशताहै ॥२२॥
मांसीत्रिजातकाय कुंकुमनीलोत्पलाभयातुत्थैः॥ सितकाचशंखफेनकमारचांजनपिप्पलीमधुकैः ॥ २३ ॥
चन्द्रेऽश्विनीसनाथे सुचूर्णितैरजयेद्युगलमणोः॥
तिमिरामरक्तराजीकण्डूकाचादिशममिच्छन् ॥ २४ ॥ ___ मुरा मांसी दालचीनी इलायची तेजपात केशर नीलाकमल हरडै नीलाथोथा सफेद मनयारीनमक शंख समुद्रझाग मिरच रसोत पीपल मुलहटी ॥ २३ ॥ इन्होंका चूर्णकर, पीछे जब अश्विनीनक्षत्रमें चंद्रमा होवे, तब दोनों नेत्रोंको इस चूर्णकरके अंजितकरै जो तिमिर अर्म रक्तराजि खाज काच इनआदिकी शांति करनेकी इच्छा करताहो वह मनुष्य अंजनकरे ॥ २४ ॥
मरिचवरलवणभागौ भागौ द्वौ कणसमुद्रफेनाभ्याम् ॥ सौवीरभागनवकं चित्रायां चूर्णितं कफामयजित् ॥ २५॥
For Private and Personal Use Only