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(२६)
अष्टाङ्गहृदयेअनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः॥
आईसन्तानतात्यागः कायवाक्चेतसां दमः॥४५॥ इस कारण जैसे संसारमें व्यवहार होवै तैसे ही आपभी व्यवहार करै, और सब प्राणिमात्रोंमें करुणा दानशरीर-वाणी-चित्तका उपशम ॥ ४५ ॥
स्वार्थबुद्धिः परार्थेषु पर्याप्तमिति सद्भतम् ॥
नक्तंदिनानि मे यान्ति कथम्भूतस्य सम्प्रति ॥ ४६॥ और पराये प्रयोजनोंमेंभी स्वार्थबुद्धि ये सब सत्पुरुषके वृत्त समाप्त हुयेहैं, इस समय मेरे दिन और रात किस प्रकार वीतती है ॥ ४६॥
दुःखभाङ् न भवत्येव नित्यं सन्निहितस्मृतिः॥
इत्याचारः समासेन सम्प्राप्नोति समाचरन् ॥ ४७॥ ऐसे नित्यप्रति सन्निहित स्मृतिवाला मनुष्य दुःखको नहीं प्राप्त होता है इस कारण संक्षेपसै यह आचार कहा ॥ ४७॥
आयुरारोग्यमैश्वर्यं यशो लोकांश्च शाश्वतान् ॥ ४८॥ और इस आचारको सेवनेवाला मनुष्य आयु-आरोग्य-ऐश्वर्य-यश--शाश्वत लोकको प्राप्त होता है ॥ ॥४८॥
इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताप्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां सूत्रस्थाने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
तृतीयोऽध्यायः।
-occasअथात ऋतुचर्याध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर ऋतुचर्यानामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे । मासैर्द्विसंख्यैर्माघायैः क्रमात् षडतवः स्मृताः ॥
शिशिरोऽथ वसन्तश्च ग्रीष्मवर्षाशरद्धिमाः॥१॥ माघआदि दोदो महीनोंकरके छः ऋतु होतेहैं; शिशिर १ वसंत २ ग्रीष्म ३ वर्षा ४ शरद् ५ हिम ६ कोई ग्रीष्म वर्षी हिम तीन ही ऋतु पढते हैं परन्तु कालके विशेष निर्णयमें छः ऋतु हैं॥१॥
शिशिराद्यास्त्रिभिस्तैस्तु विद्यादयनमुत्तरम् ॥
आदानञ्च तदादत्ते नृणां प्रतिदिनं बलम् ॥ २ ॥ शिशिरआदि तीन ऋतुओंकरके उत्तरायण जानना, तब सूर्य मनुष्योंके वलको प्रतिदिन ग्रहणकरताहै ॥ २॥
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