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१८१४)
अष्टाङ्गहृदयेजातीमुकुलसिन्धूत्थदेवदारुमहौषधैः॥
पिष्टैः प्रसन्नया वर्तिः शोफकण्डूनमंजनम्॥९॥ चमेलीकी कली सेंधानमक देवदार झूठ इन्होंको प्रसन्नासंज्ञक मदिरामें पीस बत्ती बनावे इसका अंजन शोजा और खाजको नाशता है ॥ ९॥ .
रक्तस्यन्दवदुत्पातहर्षजालार्जुनक्रिया॥ शिरोत्पात शिराहर्ष शिराजाल अर्जुन इन्होंकी क्रिया रक्ताभिस्यंदकी तरह करनी योग्यहै ।। शिरोत्याते विशेषेण घृतमाक्षिकमंजनम्॥१०॥शिराहर्षे तु मधुना श्लक्ष्णघृष्टंरसांजनम् ॥ अर्जुने शर्करामस्तुक्षौरैराश्योत नं हितम॥११॥स्फटिकः कुंकुमं शंखो मधुको मधुनांजनम् ॥ मधुना चांजनं शंखः फेनो वा सियता सह ॥ १२॥
और शिरोत्पातमें विशेषकरके घृत और शहदका अंजन हितहै ॥ १० ॥ शिराहर्षमें शहदके संग मिहीन पिसाहुआ रसोत हितहै और अर्जुनमें खांड मस्तु शहद इन्होंकरके आश्योतन हितहै ॥ ११ ॥ कपूर केशर शंख मुलहटी इन्होंका शहदके संग अंजन अथवा सुरमेका शहदके संग अंजन अथवा शंखका अथवा समुद्रझागका मिसरकेि साथ अंजन हितहै ॥ १२ ॥
अर्मोक्तं पञ्चधा तत्तु न तु धूमाविलं च यत् ॥
रक्तं दधिनिभं यच्च शुक्रवत्तस्य भेषजम् ॥ १३ ॥ अर्म पांच प्रकारका कहाहै तिन्होंके मध्यमें जो सूक्ष्महा और धूमांकी तरह आविलहो तथा रक्त वर्णवालाहो और दहीके सदृशहो तिसकी फूलेकी समान औषधहै ॥ १३ ॥
उत्तानस्येतरं स्विन्नं ससिन्धूत्थेन चांजितम्॥रसेन बीजपूरस्य निमील्याक्षि विमर्दयेत्॥१४॥ इत्थं संरोषिताक्षस्य प्रचलेऽर्माधिमांसके॥धृतस्य निश्चलं मूर्ध्नि वर्त्मनोश्च विशेषतः ॥१५॥ अपाङ्गमीक्षमाणस्यवृद्धर्मणिकनीनकात्॥बलि स्याद्यत्रतत्रार्म बडिशेनावलम्बितम् ॥१६॥ नात्यायतंमुचुण्ड्या वा सूच्या सूत्रेण वा ततः॥सामन्तान्मण्डलाण मोचयेदथ माक्षिकम् ॥१७॥कनीनकमुपानीय चतुर्भागावशेषितम्॥छिन्द्यात्कनीनके रक्षेद्वाहिनीश्चाश्रुवाहिनीः॥१८॥ कनीनकव्यधादश्रुनाडी चा क्षिणप्रवर्तते।वृद्धेऽर्मणि तथाऽपाङ्गात्पश्यतोऽस्य कनीनकात् १९॥
उत्तानहुये मनुष्यका वामें तथा दाहिनेमें एक कोईसा नेत्र स्वेदसे संयुक्तहो और सेंधानमकसे संयुक्त किये विजोराके रससे आंजितहुयेको निमीलितकर मर्दित करै ॥ १४ ॥ ऐसा
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