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अष्टाङ्गहृदये
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शिराशुक्रमलैः सात्रैस्तज्जुष्टं कृष्णमण्डलम् ॥ सतोददाहताम्राभिः शिराभिरवतन्यते ॥ २७ ॥ अनिमित्तोष्णशीताच्छघनाखस्रुकूच तत्त्यजेत् ॥
और रक्तकरके सहित दोषोंसे शिरा शुक्र होजाता है, तिस करके सेवित कालामंडल चभका - दाह तांबेसरखे वर्ण से युक्त शिराओंकरके संचित हो जाता है ॥। २७ ॥ और जो इस फूलेमें निमित्त विनाही कभी शीतल और कभी गरम रुधिर झिरै तिसको असाध्य जानके त्याग देवै ॥ दोषैः सास्त्रैः सकृत्कृष्णं नीयते शुकुरूपताम् ॥ २८ ॥ धवलाभ्रोपलिप्ताभं निष्पावार्द्धदलाकृति ॥ अतितीव्ररुजारागदाह श्वयथुपीडितम् ॥ २९ ॥ पाकात्ययेन तच्छुक्रं वर्जयेत्तीत्रवेदनम् ॥
और रक्तसहित तीनों दोषोंकरके नेत्रका काला भाग सफेद हो जाता है ॥ २८ ॥ सफेद भोरसे लिपेये समान और मोटके आधे दलके समान जिसकी आकृति हो अतितीव्र पीडाहो राहो दाह शोष से पीडीतहो ॥ २९ ॥ ऐसा वह तीव्र पीडासहित शुक्र अर्थात् फूली पकजावे तो वह असाध्य है और जिस फूलेकी भीतर दृष्टिका विनाश होजावे ॥
यस्य वालिङ्गनाशोऽन्तः श्यावं यद्वा सलोहितम् ॥ ३० ॥ अत्युत्सेधावगाढं वा साखनाडीव्रणावृतम् ॥ पुराणं विषमं मध्ये विच्छिन्नं यच्च शुक्रकम् ॥
अथवा जो भीतर से श्याववर्णवाला और किंचित् रक्तवर्णवाला होवे ॥ ३० ॥ और अि उत्सन्न और गंभीरहो और रक्तनाडीव्रण से युक्त और पुराना अर्थात् बरस दिनसे ज्यादे विषमस्थिदिवाला और मध्य से छिन्न फूला असाध्य है |
पञ्चेत्युक्ता गदाः कृष्णे साध्यासाध्यविभागतः ॥ ३१ ॥ और ये पांच रोग काले मंडलमें कहे हैं सो साध्यविभागसे जानलेने ॥ ३१ ॥
इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषाटीकायांउत्तरतंत्रेदशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
एकादशोऽध्यायः ।
अथातः सन्धिसितासितरोगप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर संधिसिताऽसितरोगप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे I उपनाहं भिषक्स्विन्नं भिन्नं व्रीहिमुखेन च ॥ लेखयेन्मण्डलाग्रेण ततश्च प्रतिसारयेत् ॥ १ ॥
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