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(७९४)
अष्टाङ्गहृदयेप्रसाद इन्द्रियार्थानां बुद्धयात्ममनसा तथा ॥
धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम् ॥ ६०॥ और इंद्रियोंके अर्थ तथा बुद्धि आत्मा मन ये प्रसन्नहो● और धातुप्रकृतिमें स्थितिहोये गएहुए उन्मादके लक्षणहैं ॥ ६ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसाहिताभाषाटीकायां
उत्तरस्थाने षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
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सप्तमाऽध्यायः।
अथातोऽपस्मारप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः। अब अपस्माररोगप्रतिषेध नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । स्मृत्यपायो ह्यपस्मारः सन्धिसत्त्वाभिसंपवात् ॥ जायतेभिहतेचित्ते चिन्ताशोकभयादिभिः॥१॥ उन्मादवत्प्रकुपितैश्चित्तदेहगतर्मलैः ॥ हते सत्त्वे हृदि व्याप्ते संज्ञावाहिषु खेषु च ॥२॥ तमोविशन्मूढमतिर्बीभत्साः कुरुते क्रियादन्तान्खादन्वमन्फेनं हस्तौ पादौ च विक्षिपन्॥३॥पश्यन्नसन्ति रूपा. णि प्रस्खलन्पतति क्षितौ॥ विजिह्माक्षिभ्रुवो दोषवेगेऽतीते विवुध्यते ॥ ४॥ कालान्तरेण स पुनश्चैवमेव विवेष्टते ॥ सतोगुणके नाशहोनेसे स्मृति के नाशको अपस्मार कहतेहै, तिस स्मृतिके विनाशसे चिंता शोक भय आदिकोंकरके चित्त अभिहत अर्थात् नाश होजानेसे ॥१॥ उन्मादकी तरह प्रकुपित हुये और चित्त देह इन्होंमें गतहुये दोषोंसे, सतोगुण हत होनेसे हृदयमें व्याप्त होजानेसे और संज्ञाको बहानेवाले स्रोतोंमें दोष व्याप्त होजानेसे ॥ २ ॥ तमोगुणमें प्रवेश होताहुआ और मूढमति हुआ निंदित क्रियाओंको करताहै, और दांतोको चबडताहुआ झागोंको गेरताहुआ और हाथपैरोंको फेंकताहुआ ॥ ३॥ और रूपोंको नहीं देखताहुआ प्रस्खलित होताहुआ पृथ्वीमें गिरपडताहै और आंखि भ्रुकुटि ये कुटिल होतेहैं और जब दोषका वेग जातारहै तब बोधहोवे ॥ ४ ॥ ऐसे फिर किसी काल के अंतरमें वह अपस्मारवाला पुरुष चेष्टासे रहित होजाताहै ॥
अपस्मारश्चतुर्भेदो वातायैर्निचयेन तु ॥५॥ और वात आदिक दोषोंकरके और सन्निपातसे चारप्रकारका अपस्मारहै ॥ ५॥ रूपमुत्पित्स्यमानेऽस्मिन् हृत्कम्पः शून्यता भ्रमः॥तमसो दर्शनं ध्यानं भ्रूव्युदासोऽक्षिवैकृतम् ॥६॥ अशब्दश्रवणं स्वेदो
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