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(७८७)
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
षष्ठोऽध्यायः॥
अथात उन्मादप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः। अब अपस्मारप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । उन्मादाः षट् पृथग्दोषनिचयाधिविषोद्भवाः॥
उन्मादो नाम मनसो दोषैरुन्मार्गगैर्मदः ॥ १॥ उन्माद छह ६ हैं प्रत्येक एकदोषके सन्निपातज आधिज विषज ऐसे उन्माद नाम उन्मार्गों में प्राप्तहुए दोषोंकरके मनको मद होजावे ॥ १ ॥
शारीरमानसैर्दुष्टैरहितादन्नपानतः॥ विकृतासात्म्यसमलाद्विषमादुपयोगतः ॥२॥ विषमस्याल्पसत्त्वस्य व्याधिवेगसमुद्गमात्॥क्षीणस्य चेष्टावैषम्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमात्॥३॥आधिभिश्चित्तविभ्रंशाद्विषेणोपविषेण च॥एभिर्विहीनसत्त्वस्य हृदि दोषाः प्रदूषिताः ॥ ४ ॥ धियो विधाय कालुष्यं हत्वा मार्गा मनोवहान् ॥ उन्मादं कुर्वते तेन धीविज्ञानस्मृतिभ्रमात् ॥५॥ देहो दुःखसुखभ्रष्टो भ्रष्टसारथिवद्रथः ॥ दूषितहुये दोषोंकरके अहितअन्नपानसे विकृत अथवा असात्म्यमलसे विषम उपयोगसे॥२॥विषम और अल्पजीवके व्याधिके वेगका उदयहोनेसे और क्षीण पुरुषके चेष्टाकी विषमता होनेसे और पूजा करने लायक पुरुषकी पूजाके व्यतिक्रम होनेसे।।३।। आधि अर्थात् मनके विकारोंकरके अथवा चित्तके विभ्रंशसे विष अथवा उपविष इन्होंकरके विहीन हुये जीवके हृदयमें दूषित हुये दोष॥४॥ बुद्धिको बिगाडके और मनको वहानेवाले स्रोतोंको हननकर उन्मादको करते हैं तिसकरके बुद्धि विज्ञान स्मृतिका विभ्रम होनेसे ॥५ ॥ देह दुःखको प्राप्त हो जाता है और सुखसे भ्रष्ट होजाताहै जैसे सारथीसे रहित रथ तैसे ॥
भ्रमत्यचिन्तितारम्भस्तत्र वातात्कृशाङ्गता ॥ ६॥ अस्थाने रोदनाक्रोशहसितस्मितनर्त्तनम् ॥ गीतवादित्रवागंगविक्षेपा स्फोटनानि च॥७॥ आसाम्नावेणुवीणादिशब्दानुकरणं मुहुः॥ आस्यात्फेनागमोऽजसमटनं बहुभाषिता ॥८॥ अलङ्कारोऽनल ङ्कारैरयानैर्गमनोद्यमः ॥ गृद्धिरभ्यवहार्येषु तदलाभेऽवमानता ॥९॥ उत्पिण्डितारुणाक्षित्वं जीर्णे चान्ने गदोद्भवः॥
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