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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२१) तं कृत्वाऽनुसुखं देहं मर्दयेच्च समन्ततः॥
तृष्णाक्षयः प्रतमको रक्तपित्तं श्रमः क्लमः॥१२॥ और व्यायामको करके पीछे जैसे देहमें पीडा न होवे, तैसे चारों तर्फसे देहका मर्दन करे, और तृषा-क्षय-तमक-श्वास-रक्तपित्त-श्रम-ग्लानि ॥ १२॥
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते ॥
व्यायामजागराध्वस्त्रीहास्यभाष्यादिसाहसम् ॥ १३॥ कास-ज्वर-छर्दि-ये सब रोग अतिव्यायामसे उपजते हैं, और व्यायाम-जागना-रास्तामें चलना-स्त्रीसंग अर्थात् विषय-हास्य और भाषणआदि धनुषका बैंचना आदि ॥ १३॥
गजं सिंह इवाकर्षन् भजन्नति विनश्यति ॥
उद्वर्तनं कफहरं मेदसः प्रविलापनम् ॥ १४॥ इन्होंको अतिसेवित करताहुआ मनुष्य नाशको प्राप्त होजाता है, जैसे हाथीको बैंचनेवाला सिंह. और उवटना मलना कफको हरताहै, और मेदको दूर करताहै ॥ १४ ॥
- स्थिरीकरणमङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् ॥ . दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जाबलप्रदम् ॥१५॥
और अंगोंकी स्थिरताको करताहै और त्वचाको साफ करताहै; स्नान करना दीपनहै, वीर्य और आयुमें हितहै, उत्साह और बलको देताहै, स्नानसे भ्राजक नाम पित्त त्वचामें प्रवेश करकै उष्णको बढाता है ॥ १५॥
कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दाहपाप्मजित् ॥
उष्णांबुनांधःकायस्य परिषेको पलावहः ॥ १६ ॥ और खाज-मल-श्रम-पसीना-तंद्रा-तृषा-दाह-पाप अर्थात् दरिद्रपना इन्होंको हरताहै; गरम पानीसे नीचेके शरीरका परिषेक बलको देताहै ॥ १६॥
तेनैव चोत्तमाङ्गस्य बलहृत् केशचक्षुषाम् ॥
स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु ॥ १७ ॥ गरम पानीसे शिरका परिषक बाल और नेत्रोंके बलको हरता है और लकवावात नेत्ररोगभुखरोग-कर्णरोग–अतिसार ॥ १७ ॥
आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् ॥
जीर्णे हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेद्दलात् ॥ १८॥ भाध्मान-पीनस-अजीर्ण इन रोगोंवालोंको और भोजन कियेको स्नान करना निंदित है
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