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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ७७१ )
संरब्धहुआ आपको तथा दूसरेको मारता है, और तैसेही शस्त्र और काष्ठ आदिकरके अपनेको तथा दूसरेको मारता है, अथवा प्रज्वलितहुये अग्निमं प्रवेश करता है ॥ ३५ ॥ पानी में डूबता है, और कूबे में पडता है और अन्यभी ऐसेही प्रकारके कुकर्मको करता है, और तृषा दाह मोह राधकी प्रवृत्ति इन्होंको करता है || ३६ || और सब मार्गों से रक्तको झिराता है, और अरिष्टकी उत्पत्तिको करता है ऐसे बालकको तथा बडेको त्यागै यह रोग असाध्यहै ||
रहः स्त्रीरतिसंलापगन्धस्रग्भूषणप्रियः ॥ ३७ ॥ हृष्टः शान्तश्च दुःसाध्यो रतिकामेन पीडितः ॥
और एकांत में स्त्री के संग रमण संलाप गंध माला गहना इन्होंमें प्यारकरनेवाला ||३७|| और हृष्ट अर्थात् आनंदितरूप और शांतस्वरूपसे मनुष्य रमणकी कामनावाले ग्रहसे पीडित होता है यह कष्टसाध्य है ॥
दीनः परिमृशेद्वक्रं शुष्कोष्ठगलतालुकः ॥ ३८ ॥ शंकितं वीक्षते रोति ध्यायत्यायाति दीनताम् ॥ अन्नमन्नाभिलाषेऽपि दत्तं ना ति बुभुक्षते ॥ ३९ ॥ गृहीतं बलिकामेन तं विद्यात्सुखसाधनम् दीन हुआ मुखको परिमृशित करता है और सूखे ओष्ठ गल ताल्लु इन्होंवाला ॥ ३८ ॥ शंकिहुआ देखता है और रोता है और चितवन करता है और दीनपनेको प्राप्त होता है और अन्नकी अभिलापा भी दियेहुये अन्नको अतिशयकरके नहीं खानेकी इच्छा करता है ॥ ३९ ॥ तिसको पूजाकी इच्छावाले ग्रहकरके गृहीत जानना यह सुखसाध्यहै ॥
हन्तुकामं जयेन्द्रमैः सिद्धमन्त्रप्रवर्त्तितैः ॥ ४० ॥ इतरौ तु यथाकामं रतिबल्यादिदानतः ॥
और मारने की इच्छावाले ग्रहको सिद्ध मंत्रोंकरके प्रवर्तित किये होमोंकरके जीते ॥ ४० ॥ रमण और पूजाकी कामनावाले दोनों ग्रहको इच्छाके अनुसार रति और बलि आदिके दान से जीतै ॥ अथ साध्यग्रहं बालं विविक्ते शरणे स्थितम् ॥ ४१ ॥ त्रिरह्नः तिक संसृष्टे सदा सन्निहितानले । विकीर्ण भूतिकुसुमपत्रबीजान्नसर्वपे॥४२॥ रक्षोघ्नतैलज्वलित प्रदीपहतपाप्मनि॥व्यवायमद्यापिशितनिवृत्त परिचारके ॥ ४३ ॥ पुराणसर्पिषाभ्यक्तं परिपिक्कं सुखा
ना ॥ साधितेन बलानिम्बवैजयन्ती नृपद्रुमैः ॥ ४४ ॥ पारि भद्रककवङ्गजंबूवरुणकटूतृणैः ॥ कपोतवङ्कापामार्गपाटलामधु शिग्रुभिः ॥ ४५ ॥ काकजंघामहाश्वेताकपित्थक्षीरपादपैः॥ स कदम्वकर जैश्च धूपं स्नातस्य चाचरेत् ॥ ४६ ॥ द्वीपिण्याचाहि सिंहचभिर्धृतमिश्रितैः ॥
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