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अष्टाङ्गहृदयेमूर्छाविकारं दृष्ट्वास्य सिञ्चच्छीताम्बुना मुखम् ॥१२॥ व्यजे. दाक्लमनाशाच्च प्राणायामं च कारयेत् ॥ पृष्ठपाश्र्वोदरं मृज्याकरैरुष्णैरधोमुखम् ॥ १३॥ केशेषूरिक्षप्य धुन्वीत भीषयेद्वया लदंष्ट्रिभिः॥ शस्त्रोल्काराजपुरुषैर्वस्तिरेति तथा ह्यधः ॥१४॥ पाणिवस्त्रेर्गलापीडं कुर्यान्न म्रियते यथा ॥ प्राणोदाननिरोधाद्वि सुप्रसिद्धतरायनः॥१५॥अपानः पवनो बस्ति तमाश्वेवापकर्षति॥कुष्ठक्रमुककल्कं च पाययेताम्लसंयुतम् ॥१६॥औ
ण्यात्तैक्ष्ण्यात्सरत्वाञ्च वस्तिं सोऽस्यानुलोमयेत् ॥ गोमूत्रेण त्रिवृत्पथ्याकल्कं चाधोऽनुलोमनम् ॥ १७ ॥ पक्काशयस्थिते स्विन्ने निरूहो दशमूलिकः ॥ यवकोलकुलत्थैश्च विधेयो मूत्र साधितैः ॥ १८ ॥ वस्तिर्गोमूत्रसिद्धैर्वा सामृतावंशपल्लवैः ।। पूतीकरञ्जत्वपत्रशठीदेवाबरोहिषैः ॥१९॥ सतैलगुडसिन्धूत्थ विरकौषधकल्कवान्।बिल्वादिपंचमूलेन सिद्धो बस्तिरुरःस्थिते॥२०॥ शिरःस्थे नावनं धूमःप्रच्छाद्यं सर्षपैः शिरः॥ इस रोगीके मू के विकारको देखकर शीतल पानीसे सींच ॥ १२ ॥ और जब तक ग्लानिका नाश हो तबतक बीजनेसे पवन करावै तथा प्राणायामको करावै और पृष्ट पशली पेटको गरम हाथोंकरके शुद्धकरै और नीचेके मुखवाले तिस रोगीको ॥ १३ ॥ केशों में पकडके सीधाकर कंपावै और सिंह तथा सर्प और शस्त्र उल्का राजपुरुष आदिकरके डरवावै, जैसे बस्ति नीचेको प्राप्त हो ॥ १४ ॥ हाथ और वस्त्रोंकरके गलको आपीडितकरे, परंतु ऐसा नहीं कि प्राण निकलजाय तैसे प्राण और उदान वायुको निरोधसे अच्छीतरह प्रसिद्धस्थानवाला ॥ १५ ॥ अपानवायु तिस बस्तिको शीघ्र बैंचताहै अथवा कूट और सुपारीके कल्कको कांजीसे संयुक्तकर पान करावै ॥ १६ ॥ सौम्यपनेंसे और तीक्ष्णपनेसे और सरपनेसे वैद्य इस रोगीकी बस्तिको अनुलोमित करे और गोमूत्रकरके निशोत और हरडैका कल्क यह नीचेको अनुलोमन करताहै ॥ १७ ॥ पक्काशयमें स्थितहुये दोषको स्वेदितकर पीछे गोमूत्रसे साधित किये जव बेर कुलथीसे दशमलिक निरूह देना योग्यहै ॥ १८ ॥ अथवा गिलोय वंशके पत्ते पूतिकरंजुआ दालचीनी तेजपात देवदार रोहिपतृणको गोमूत्रमें सिद्धकरके ॥ १९ ॥ और तेल गुड सेंधानमक जुलाबके औषधके कल्कसे संयुक्त बस्ति देना योग्यहै छातीमें स्थितहुये दोषमें बृहत् पंचमूलकरके सिद्धहुआ बस्ति हितहै ॥ २० ॥ शिरमें स्थितहुये दोषमें नस्य और सिरसोंके धूमेकरके प्रच्छादित करना योग्यहै ।।
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